Kartik Mahatmya Chapter-26 | कार्तिक माहात्म्य-26 - छब्बीसवां अध्याय
सूतजी कहते हैं कि भगीरथ के वंश में सौरदास नाम का एक राजा हुआ, जिसका पुत्र मित्रसह था । मित्रराह गुरु वशिष्ठ जी के श्राप से राक्षस हो गया, परन्तु गंगाजल के प्रभाव से वह भी भगवान के परमपद को प्राप्त हुआ।
ऋषि पूछने लगे कि हे सूतजी ! गुरु वशिष्ठ ने किस कारण से श्राप दिया सो आप कृपा करके यह कथा विस्तारपूर्वक कहिए । तब सूतजी कहने लगे कि हे ऋषियो एक समय अति धर्मज्ञ राजा सौरदास कुछ साथियों सहित शिकार खेलने के लिए वन में गया वहां पर अनेक मृगों का शिकार किया । फिर भूख तथा प्यास से दुखित हो राजा नदी के तट पर आया। यहां पर उसका पुत्र मित्र सह नित्य नियम करता था। राजा ने रात्रि वहीं पर ही बिताई। प्रातःकाल होते ही वहां से उठकर फिर शिकार की तलाश में चल पड़ा । कुछ दर जाकर राजा ने देखा कि पर्वत की कन्दरा में एक व्याघ्र और व्याघ्री मैथुन कर रहे हैं राजा ने उनको देखते ही धनुष पर बाण चढ़ाया और उन पर छोड़ दिया । बाण के बगते ही व्याघ्री घायल होकर वहीं पर गिर पड़ी और फिर थोड़ी देर बाद मर गई। तब व्याघ्र राक्षस रूप धारण कर बड़े क्रोध में आकर कहने लगा कि राजन् ! तुमने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसका बदला मैं तुमसे अवश्य लूंगा । ऐसा कहकर वह राक्षस अत्यन्त दुखित हुआ । तत्पश्चात् राजा ने अपनी नगरी में आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त मन्त्रियों से कहा ।
कुछ समय बीतने पर राजा सौरदास ने मुनियों को बुलाकर अश्वमेध यज्ञ किया और गुरु वशिष्ठ जी ने विधि पूर्वक ब्रह्मादि देवताओं को हवि देकर यज्ञ समाप्त किया, फिर स्नान करने के लिए नदी के तट पर चले गये । इतने में वही राक्षस जिसकी राक्षसी को राजा ने वन में मार दिया था, क्रोधित | होकर अपना बदला लेने के लिए वहां पर आया और गुरु वशिष्ठ जी को वहां पर न देख उन्हीं रानी दमयन्ती कहने लगी, आप क्षत्री के पुत्र हैं, क्रोध को त्याग देवें । जो भोग आपके भाग्य में लिखा है उसको भोगो । जो मनुष्य गुरु से हुँकार तुंकार करता है वह वन में जाकर ब्रह्म राक्षस होता है । स्त्री के वचनों को सुनकर राजा क्रोध त्याग कर विचारने लगा कि अब क्या करना चाहिए? फिर राजा ने उस जल को ज्योंही अपने पैरों में डाला त्योंही उसके पैर काले पड़ गये । इसी कारण वह राजा काल्माषपाद के नाम से .विख्यात हुआ । तत्पश्चात् राजा गुरुजी के चरणों में पड़ गया और क्षमा मांगने लगा। तब वशिष्ठ जी ने कहा क्योंकि यह पाप तुमसे अनजाने में हुआ है अतः इसके श्राप का प्रभाव केवल बारह
वर्ष तक रहेगा। इसके बाद तुम अपने असली रूप में आ जाओगे और अनेक वर्ष तक राज्य भोगकर गंगाजल के प्रभाव से ज्ञान प्राप्त करोगे । तब भगवान विष्णु की सेवा करते हुए अन्तकाल में परम शान्ति को प्राप्त हो जाओगे । इतना कहकर गुरु वशिष्ठ जी अपने आश्रम को चले गये और राजा राक्षसी देह को प्राप्त हो गया । वह भूख प्यास से दुःखी हो निर्जन बन में फिरने लगा । वहां से वह अनेक कष्टों को सहन करता हुआ नर्मदा नदी के तट पर आया और वहां भी पशु, पक्षी, मनुष्य, सर्प आदि खाकर विचरण करने लगा संयोगवश एक दिन नर्मदा नदी के तट पर घूमते हुए स्त्री सहित स्मरण करते हुए एक मुनि को देखा । भूख से पीड़ित होने पर जैसे व्याघ्र मृग को पकड़ लेता है, उसी प्रकार उसने मुनि को पकड़ लिया । उसकी स्त्री ने जब अपने को राक्षस के हाथों में देखा तो वह राक्षस देहधारी राजा के आगे हाथ जोड़ कर विनयपूर्वक बोली, कि आप मेरे पति को मत मारो । आप वास्तव में राक्षस नहीं, वरन् सूर्य कुल उत्पन्न मित्रसह नामक राजा हो । मेरा पुत्र अभी बालक है, अतएव मैं बिना पति के इस वन में कैसे निर्वाह करूंगी । अतः तुम मेरे पति को प्राण दान दे दो । प्राणदान के समान अन्य कोई दान नहीं है । उस स्त्री की इस प्रार्थना का राक्षस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जैसे व्याघ्र एक मृग के बच्चे को पकड़ कर खा जाता हूं, वैसे ही उस मुनि को जो उस समय अपनी स्त्री के साथ मैथुन कर्म कर रहा था, पकड़कर खा गया । तब मुनि की स्त्री ने उसे श्राप दिया कि मैथुन करते हुए तुमने मेरे पति को मारा है । अतः तुम भी जब मैथुन करोगे तो मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे और पुनः राक्षस देह धारण करोगे यह दो श्राप सुनकर राक्षस दहधारी राजा भी क्रोध में आकर कहने लगा कि हे दुष्टे ! तुमने एक अपराध के बदले में दो श्राप दिये हैं अतः तुम भी राक्षसी होकर इस वन में फिरती रहोगी। इस कारण वह स्त्री भी पिशाचिनी हो गई और भूख प्यास से दुखित होकर उस वन में फिरने लगी।
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