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    कार्तिक माहात्म्य पाठ -6 

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    नारद जी कहने लगे कि हे ब्रह्मण ! कार्तिक मास के माहात्म्य का विधिपूर्वक वर्णन करिये| ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद ! तुम बड़े सज्नन पुरुष हो जो लोकों के हित के लिए ऐसे प्रश्न करते हो| अब मैं ऐसी कथा तुमसे कहता हूँ जिसके सुनने मात्र से पापों का नाश हो जाता हैं| हे नारद! सूतजी इसी नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक ऋषियों से कहते हैं कि हे ऋषियों! साधुओं का संत्सग अति पवित्र होता हैं और संसार के पापों के भय को दूर कर देता है| ज्ञानियों को मोक्ष देता है| कामना वालों की कामना पूरी करता है| श्री गंगाजी पापों को नष्ट कर देती हैं, चन्द्रमा ताप को दूर कर देता है, कल्प वृक्ष दीनता को नष्ट कर देता है, परन्तु साधु समागम पाप, ताप और दीनता तीनों को नष्ट कर देता है| इसका आधा क्षण भी मोक्ष का देने वाला हो जाता है| इतना वार्ता सुनकर ऋषि कहने लगे कि हे सूतजी! आप कृपा करके कार्तिक माहात्म्य, इतहास तथा प्रसंघ सहित सुनाइए| तब सूतजी कहने लगे कि हे ऋषियों! एक समय भगवान कृष्ण कमल जैसे नेत्रों वाली श्री सत्यभामा जी कहने लगी कि मैं धन्य हूँ और मेरे माता-पिता भी धन्य हैं जिनके मेरे जैसी कन्या उत्पन्न हुई, जिसके पति आप भगवान हुए| आप सोलह हज़ार एक सौ आठ रानियों में सबसे अधिक मुझे से प्रेम करते है| जिस कल्प वृक्ष की पृथ्वी के लोग बात तब नहीं जानते वह मेरे आंगन में लगा हुआ है| अतः मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ| आशा है मेरे हित के लिए आप वह बात अवश्य बताने की कृपा करेंगे| 
    इतनी बात सुनकर श्री कृष्ण जी सत्यभामा हाथ पकड़कर कल्प वृक्ष के निचे ले गए और कहने लगे की हे सत्यभामे ! सब रानियों में तुम मुझको सबसे अधिक प्रिय हो| तुम्हारे स्नेहवश मैंने इंद्र से विरोध करके यह कल्प वृक्ष स्वर्ग से लाकर तुम्हारे आंगन में लगाया | अब तुम मुझसे यदि गुप्त  से गुप्त बात पूछोगी तो वह भी मैं बतलाऊंगा| 
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    सत्यभामा कहने लगीं कि हे स्वामिन! पहले जन्म में मैंने ऐसा कौन सा पुण्य का काम किया था जिससे में आपकी अर्धांगिनी बानी और गरुड़ पर बैठ कर आपके साथ इन्द्रादि लोकों में भी जी सकती हूँ| पहले जन्म में कौन थी,किसकी कन्या थी आप विस्तारपूर्वक कहिय| भगवान कृष्ण कहने लगे कि हे सत्यभामे ! तुम विस्तारपूर्वक सुनो, मैं सब वृतांत कहता हूँ| पहले सतयुग के अंत में माया पुर में अत्रि कुल में वेद तथा शास्त्रों का जानने वाला देव शर्मा नाम का एक ब्रह्मण रहता था| वह सूर्य का भक्त था तथा रात दिन अतिथियों की सेवा किया करता था| उसके कोई पुत्र नहीं था, परन्तु बड़ी आयु में उसके एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम गुणवती था, देवशर्मा ने चंद्र नामक अपने एक शिष्य के साथ अपनी कन्या गुणवती का विवाह कर दिया| चंद्र पिता के सामान उसकी सेवा करता था| एक दिन देवशर्मा अपने दामाद के साथ लकडिया काटने के लिए हिमाचल के समीप गया| वन में इधर-उधर फिरते हुए उन्होंने एक महाभयंकर राक्षस देखा| उसको देख वे दोनों भागने में असमर्थ हो गए और दोनों उसके हाथों मारे गए| परन्तु उस क्षेत्र के प्रभाव और अपने कर्मों के कारण हमारे दूतों द्वारा विमान में बैठकर हमारे लोक को प्राप्त हो गए| उन दोनों का मरण सुनकर गुणवती बड़ा रुदन करने लगी और पुकारने लगी कि हे पिता! हे पति! तुम्हारे बिना मेरा निर्वाह कैसे होगा ? मैं किस प्रकार जीवित रह सकूँगी? तुम मुझे छोड़कर कहा चले गए? मेरे अन्न तथा भोजन का प्रबंध कैसे होगा? मेरे लिए अब कोई ठिकाना न रहा| इस प्रकार विलाप करती हुई यह वृक्ष की तरह मूर्छा खाकर भूमि पर गिर गई अरु जब कुछ चेतना आई तो उसने घर का सामान बेचकर उन दोनों की अंत्येषिट किर्या की और मेरी भक्ति में सदा तत्पर रहने लगी| इस प्रकार कार्तिक मास आ गया और वह कार्तिक के व्रत करने लगी| तथा एकदशी का व्रत भी करने लगी| 
    एक समय वह ज्वर से पीड़ित हो गई| वह दुर्बल शरीर वाली गुणवती गंगा स्नान को गई| अतएव गंगाजी में प्रवेश करते ही शीत के मारे उसकी  देह कांपने लगी और वह शिथिल होकर वहीं पर गिर पड़ी उसी समय हमारे दूत सुन्दर विमान में बिठा कर उसको हमारे धाम में ले आये| यह कार्तिक के व्रत का ही प्रभाव था | फिर द्वापर में ब्रह्मादि देवताओं की प्रार्थना पर पृथ्वी का भार उतारने के लिए हमने कृष्णावतार लिया तो उस समय हमारे ही सब देवगन यादव वन और तुम्हार पिता देवा शर्मा शत्रजीत हुआ| चंद्रशर्मा अक्रर हुए तुम गुणवती सत्यभामा हुई| कार्तिक के व्रत प्रभाव से तुम हमारी प्यारी हुई तुमने आजन्म तुलसी के वृक्ष का पालन किया इसी से तुम्हारे आंगन में कल्प वृक्ष है|  कार्तिक में तुमने दीपदान किया इसी से तुम्हारे घर में लक्ष्मी स्थित है| जो कार्तिक मास में तुमने व्रतादि किया उसी से तुम हमारी अर्धांगिनि हुई| जो कोई कार्तिक मास में व्रतादि करता है वह हमको तुम्हारे समान ही प्रिय होता है| 

    कार्तिक माहात्म्य -6  समाप्तम 

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