कार्तिक माहात्म्य अध्याय -9
इधर वृंदा ने स्वप्न देखा कि उसका पति सारे शरीर में तेल लगा का नंगा शरीर भेंसे पर सवार होकर, दक्षिण दिशा की और प्रेतों के साथ जा रहा है| यह स्वप्न देखा उसे बड़ी चिंता हुई और अटारी तथा गौशाला कही भी विश्राम नहीं मिला| तब वह एक वन से दूसरे वन में चली गई| वहां वृंदा ने सिंह जैसे मुख वाले दो राक्षस देखे उन्हें देखते ही वह डर के मारे भागी| आगे जाकर उसके शिष्य सहित एक तपस्वी मुनि को देखा और उनसे अपनी रक्षा के लिए कहा| उसकी प्रार्थना पर मुनि ने अपनी एक हुंकार से उन राक्षसों को भगा दिया| तत्पश्चात वृंदा ने मुनि से विनयपूर्वक कहा की महाराज मेरे पति जालंधर तथा महादेव जी में घोर युद्ध हो रहा है| उसमें किसकी विजय होगी, कृपा करके बताइय क्योकि आप सर्वज्ञ हैं| यह सुनकर मुनि ने ऊपर को देखा| उसी समय दो बंदरों ने आकर मुनि को प्रणाम किया और मुनि के संकेत पर वे दोनों बन्दर वहां से चले गए| फिर थोड़ी देर बाद वे दोनों आकाश की ओर से आये और उन्होंने वहां जालंधर दैत्य का सिर और धड़ लेकर फ़ेंक दिया| वृंदा अपने पति के मृत शरीर को देखकर बहुत दुखी हुई और रोने लगी| तत्पश्चात मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी|
मुनि ने अपने कमंडलु से उस पर जल छिड़का तो उसे चेतन्यता आई| तब वह पुनः विलाप करती हुई मुनि से बोली कि महाराज जिसने देव, गन्धर्व और विष्णु सहित तीनों लोको को जीत लिया, वह शिव के हाथ से कैसे मारा गया? हे मुने ! आप बड़े सामर्थ्य वान हैं, किसी प्रकार मेरे पति को फिर जीवित कर दीजिये| तब मुनि कहने लगे कि शिवजी के हाथ से मरे हुए को कौन जीवित कर सकता है, परन्तु फिर भी तुम पर कृपा करके हम इसको जीवित कर देते हैं| ऐसा कहकर मुनि अंतर्ध्यान हो गए और जालंधर जीवित होकर वृंदा के साथ प्रेमलाप करता हुआ आलिंगन वृद्ध हो गया वृंदा भी अपने पति के वेष में विष्णु के साथ उस वन में रमण करती रही| परन्तु एक दिन मैथुन के पश्चात अपने पति के वेश में विष्णु को देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुई और श्राप देती हुई बोली कि तुमने मेरा पतिव्रत धर्म नष्ट किया है, इसलिए मैं तुमको श्राप देती हूँ| निश्चित ही वह कपट मुनि तुम्हीं थे और तुमने जो दो राक्षस कपट के बनाये थे, वही कालांतर में तुम्हारी स्त्री का हरण करेंगे और जो तुम्हारा शिष्य था, वह बन्दर रूप धारण कर तुम्हारी सहायता करेगा| फिर कहा कि शिला (पत्थर) हो जाओ|
नारद जी कहने लगे कि हे राजा पृथु! भगवान कृष्ण ने देवताओं तथा आपने भक्तो के कार्य के लिए पतिव्रता वृंदा का यधपि शील हर लिया परन्तु वे मन ही मन अत्यंत दुखी हुए और बोले हे वृन्दे ! मैंने तुम्हारे श्राप को ग्रहण किया अतः में अवश्य शिला रूप में हो जाऊंगा| परन्तु तुम भी वृक्ष रूप होकर मुझको मिलोगी| उसी समय वृंदा अपने पति के चरणों का ध्यान करके करके विष्णु के मना करने पर भी अग्नि में प्रवेश कर गई| नारदजी कहते हैं हे राजा पृथु इधर शिवजी बड़े भयंकर वेग से राक्षसों को मारने लगे| शिवजी की इस तीक्ष्ण बाण वर्षा के आगे शुम्भ और निशुम्भ भी न ठहर सके और वह युद्ध से भाग खड़े हुए| तब शिवजी ने उनको श्राप दिया, क्योँकि तुम युद्ध क्षेत्र से भाग गए हो इसलिए पार्वती के हाथ से मारे जाओगे| उधर जिस समय वृंदा का पतिव्रत धर्म नष्ट हुआ, तभी जालंधर का बल समाप्त हो गया| ठीक इसी समय विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र अपने तेज सहित शिव को दिया| फिर शिवजी ने अपना ऋषियों के तप का, पतिव्रता स्त्रियोँ का तथा ब्रह्मा जी का तेज उसमे जोड़कर जालंधर दैत्य पर छोड़ दिया, जिससे उसका सिर कटकर भूमि पर गिर गया| सिर और धड़ अलग होते ही जालंधर का तेज उसके शरीर से निकल श्री शिवजी में तथा वृंदा का तेज श्री पार्वती जी में समा गया| उधर विष्णु वृंदा की चिता में लोटने लगे| तब सब देवताओं ने शिवजी की स्तुति की और कहा कि महराज! जालंधर को मारकर आपने देवताओं का बड़ा उपकार किया है, परन्तु कई महान अनर्थ हो रहा है, कृपा करके उसका का भी कुछ उपाय कीजिये| भगवान विष्णु वृंदा के पतिव्रत धर्म से मोहित होकर लगातार उसकी चिता भस्म पर लोट रहे हैं और किसी प्रकार का विश्राम नहीं कर रहे हैं| तब शिवजी ने कहा कि हे देवताओं ! तब सब भगवान की योगमाया की शरण में जाकर उनकी स्तुति करते हुए बोले तुम्हारी माया को ब्रह्मादिक भी नहीं जानते है, उस देवी को हमारा नमस्कार है| जिसके भक्तगण अनादर तथा मोह को प्राप्त नहीं होते ऐसी मूल प्रकृति को हमारा नमस्कार है| उस समय देवताओं ने एक तेज देखा और आकाशवाणी सुनी कि गौरी लक्ष्मी और सरस्वती, रजोगुण सतोगुण और तमोगुण रूप में मैं ही हूँ| वही तीनों तुम्हारा कार्य सिद्ध करेंगी| उन देवियों की तुम आराधना करो| फिर उन तीनो देवियों ने प्रकट होकर तीन बीज दिए और कहा की इन तीनों बीजों को जहाँ पर विष्णु मैं जाकर बो दो और अपना कार्य सिद्ध करो| देवताओं ने तीनों बीज ले जाकर जहाँ पर वृंदा की चिता पर भगवान विष्णु लोट रहे थे, जाकर बो दिए| उन तीनों बीजों से तीन वृक्ष उत्पन्न हुए| रजोगुण सरस्वती से आंवला, तमोगुण गौरी से तुलसी और सतोगुण लक्ष्मी से मालती हुई| श्री लक्ष्मी जी ने अपना बीज ईर्ष्या युक्त होकर दिया था, इसलिए मालती भगवान पूजा में निन्दित तथा आवंला और तुलसी भगवान को अतिप्रिय हुए| इस प्रकार वृंदा वृक्ष रूप होकर भगवान शालिग्राम से संयोग किया|
इसी कारण कार्तिक के उद्यापन में भगवान की पूजा तुलसी के मूल में होती हैं| नारद जी कहते हैं कि हे राजा पृथु! जिस घर में तुलसी का वृक्ष होता है, उसमें यमदूत कभी नहीं जाते| इसलिए जो तुलसी का वृक्ष घर में लगाते हैं वे यमपुरी नहीं देखते| नर्वदा तथा गंगा का जल और तुलसी का पूजन यह तीनों करए बराबर हैं| मनुष्य तुलसी तथा आवंला की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है उसके पित्तर मोक्ष को प्राप्त हो जाते है|
नारद जी कहते हैं कि हे राजा पृथ! तुलसी और आंवले का महात्म्य ब्रह्मा जी भी कहने में असमर्थ हैं| जो कोई इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है वह भी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है|
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