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    कार्तिक माहात्म्य-17| सत्रहवां अध्याय  सत्रहवां अध्याय 

    Kartik Mahatmya Chapter-17 | कार्तिक माहात्म्य-17| सत्रहवां अध्याय
    सूती जी कहने लगे कि अब सब व्रतों में उत्तम । व्रत और मोक्ष के देने वाले एकादशी के व्रत का - माहात्म्य सुनो । एकादशी तिथि कृष्णपक्ष की हो या शुक्लपक्ष की, अन्न नहीं खाना चाहिए । जो एकादशी को अन्नखाता है वह पापों का भक्षण करता है । एकादशी का व्रत माता के समान उसकी रक्षा करता है।

    नारद जी कहने लगे कि राजन! अब एक इतिहास सुनो । नर्मदा के तट पर गालव ऋषि का अति शोभायमन आश्रम था। गालव का भद्रशील नाम का एक पुत्र था, जो विष्णु का परम भक्त था । वह बालकों के साथ भगवान की मूर्ति मुझ बनाकर पूजन किया करता था, साथ ही बालको ख को उपदेश दिया करता था कि वह भी भगवान का पूजन करें तथा एकादशी का व्रत रखें बालक भी उसका उपदेश सुनकर वैसा ही किया -- करते थे । अपने पुत्र के चारित्र को देखकर एक पर समय उसके पिता गालई ऋहि ने उससे पूछा कि भद्रशील तुम सदैव भगवान विष्णु की पूजा में लगे रहते हो, यह उपदेश तुमको किसने दिया ? यह - बात सुनकर भद्रशील कहने लगा कि पिताजी मैं या आपको अपने पूर्व जन्म का वृतांत सुनाता हूँय पहले जन्म में मेरा जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कर्मकीर्ति मेरा नाम था । दत्तात्रेय जी से मैंने : शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की । मैंने एक हजार वर्ष तक - राज्य किया। उस काल में मैंने अनेक धर्म तथा

    पाप के कर्म भी किए परन्तु दैववश मैं बरी संगत। में पड़ गया और वेद मार्ग छोड़कर पाखंड मार्ग पर चल पड़ा । मेरे इन आचरणों को देखकर प्रजा भी पाप के कर्म करने लगी । इस प्रकार धर्म शास्त्रों के कथनानुसार प्रजा के पाप का छठा भाग मझको भी मिलने लगा । एक दिन हम शिकार खेलने के लिए वन में गए । अतएव सारे दिन भखे और प्यासे ही रहे, खाने को कुछ नहीं मिला । घूमते-फिरते हम मार्ग भी भूल गए और शाम को नर्मदा नदी के किनारे पर पहुँच गए । उस दिन एकादशी का व्रत होने के कारण वहां पर एकत्रित अनेक वैष्णव भगवान् का कीर्तन कर रहे थे। मैं भी भूखा प्यास रहकर रात भर वहीं पर पड़ा रहा, मगर प्रातःकाल होते ही भूख-प्यास से दुःखी हो मेरे प्राण निकल गए । उसी समय यमराज के दूत मुझको पापी समझकर मारते पीटते यमराज के पास ले गए । यमराज ने चित्रगुप्त से मेरे सब पाप और पुण्य का लेखा मांगा । 

    तब चित्रगुप्त ने विचार कर कहा इसने एकादशी का व्रत किया था, उसकी से इसके प्राण निकल गए इस कारण इसके समस्त पापक्षय हो गए हैं । यह सुनकर यमराज तत्काल अपने सिंहासन से उठाकर खड़े हो गए और हाथ जोड़ मुझसे बोले कि क्षमा करना हमसे भूल हो गई, साथ ही मुझको नमस्कार मी किया । फिर अपने दूतों को धमका कर कहने नगे जो मनुष्य भगवान के नामों का जाप करता हो, उसको कभी हमारे पास मत लाओ| जिसी अनजाने भी एकादशी का व्रत किया हो उसके हमारे पास आने की आवश्यकता नहीं पड़ती इसके बाद यमराज ने मेरा पूजन किया और फि मुझे सुन्दर विमान में बिठाकर विष्णुलोक को भेज दिया । हजारों वर्ष तक इन्द्र लोक साथ विष्ण लोक में रहने के पश्चात् अब फिर मैंने यहां पर जन्म लिया है। जो कोई इस कथा को पढ़ता है। अथवा. सुनता है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते|

    1 comment:

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