कार्तिक माहात्म्य का द्वादश अध्याय
इतनी कथाएं सुनने के बाद महाराज पृथु नारद जी से प्रार्थना की - हे देवऋषि ! आपने कार्तिक माहात्म्य कर्क चतुर्थी व्रत और गृहस्थ धर्म के बारे में मुझे इतना कुछ बतलाया है| अब कृपा करके तुलसी का माहात्म्य भी बतलाने की कृपा कीजिये|
नारदजी बोले - हे राजा पृथु! प्राचीन काल में सहाद्रि क्षेत्र के कर्वरीपुर में अत्यंत ज्ञानी, धर्मात्मा तथा 'ॐ' नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र का जप करने वाला धर्मदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था| वह अतिथियों का आदर-सत्कार भी खूब करता था| एक दिन प्रातः काल एक प्रहर रात्रि शेष रहने पर वह ब्राह्मण पूजा की सामग्री लेकर भगवान के मंदिर को जा रहा था, की इतने में उसने सामने से आती हुई एक अत्यंत भयंकर राक्षसी को देखा| आगे को निकले हुये टेढ़े- मेढे और बड़े बड़े दांत, लाल बिलकुल नग्न लकड़ी के सामान सूखा शरीर तथा मुख से घुर -घुर शब्द निकल रहा था| ऐसी भयंकर राक्षसी को देखकर भयभीत धर्मदत्त ने अपने हाथ का तुलसी मिश्रित जल उस पर फ़ेंक दिया| जल में मिश्रित तुलसीदल शरीर पर पड़ते ही उस राक्षसी के समस्त पाप दूर हो गये और वह हाथ जोड़कर धर्मदत्त के पैरों पर गिर पड़ी |
तब धर्मदत्त ने पूछा कि तू कौन है और किस पाप के कारण इस दशा को प्राप्त हुई | अपने पापों से मुक्त हो चुकी वह राक्षसी कहने लगी - सौराष्ट्र देश में भिक्षु नामक ब्राह्मण की मैं पत्नी थी | मेरा नाम कलहा था| मैं न तो अपने पति से मीठे वचन बोलती थी और न अच्छा भोजन व् फल ही खाने को देती थी| इस व्यवहार से दुखी होकर जब मेरे पति ने दूसरा विवाह करने का निश्चय किया तो क्रोध में आकर मैंने विष खाकर अपना शरीर त्याग दिया| इसके बाद यमदूत मुझे बांधकर यमराज के पास ले गए| वहां चित्रगुप्तजी ने मेरे अच्छे - बुरे कर्मों का लेखा- जोखा बताते हुए यमराज से कहा- हे महाराज! इसने अपने जीवन में कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया| सदैव अपने पति से द्वेष करती रही है| यह सुनकर यमराज ने आज्ञा दी- क्योँकि जिस बर्तन में यह पकाती थी उसी में खाती थी, इसलिए इसको पहले अपनी संतान को खाने वाली बिल्ली की योनि में भेजा जाये| उसके बाद पति से द्वेष करने के कारण इसको विष्टा खाने वाली शूकरी की योनि प्राप्त हो| तदन्तर क्योँकि इसने आत्मा - हत्या की है, इसलिए यह प्रेत योनि में जाये| सो महाराज ! मैं पांच सौ वर्ष से इसी योनि में फिर रही हूँ | भूख और प्यास से दुखी होकर एक वेश्य के शरीर में प्रवेश करके में कृष्णा और वेणी नदी के संगम पर गई| जैसे ही मैं नदी के तट पर पहुंची, विष्णु के दूतों ने मुझे वैश्य के शरीर से निकल कर बहार फ़ेंक दिया| वहां घूमती- फिरती मैं आ रही थी कि आप मिल गए | आपने तुलसी मिश्रित जो जल मेरे ऊपर फेंका है उससे मेरे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गए हैं | अब कृपा करके इस प्रेत योनि से मेरा उद्धार कीजिये |
राक्षसी से सारा वृतांत सुनने के बाद ईश्वर भक्त ब्राह्मण धर्मदत्त ने कहा- तुमको देखकर मुझे अत्यंत दुःख हुआ है| मैं जानता हूँ कि तीर्थ , व्रत, दान, आदि सत्कर्म प्रेत योनि में नहीं हो सकते| तुम्हारे पापा अधिक तथा पुण्य बहुत कम है| इसलिए मैंने अपने जीवनकाल में जितना कार्तिक मास का स्नानं और व्रत किया है, उसका आधा पुण्य तुमको देता हूँ| इससे तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी| इसके पश्चात ब्रह्मण ने ज्यों ही 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' मन्त्र पढ़ते हुए तुलसी मिश्रित जल से उसका अभिषेक किया, वह प्रेत योनि से मुक्त पाकर अग्नि के समान दिव्य देह धारण कर लक्ष्मी के समान रूपवती हो गयी| इसके बाद उसने ब्राह्मण को नमस्कार किया | तभी भगवान विष्णु के पुण्यशील तथा सुशील नामक दो दूत वहां पर आये और उसको विमान में बैठाकर बैकुण्ड को ले गए| उन दूतों ने धर्मदत्त से कहा - हे ब्राह्मण ! निरन्तर भगवान की भक्ति में लगे रहने के कारण तुम धन्य हो| तुम्हारे द्वारा कार्तिक मास के स्नानं व व्रतों का आधा पुण्य दिए जाने के कारण ही इसकी मुक्ति हुई है| हे विप्र! अपने इस त्याग, भक्ति और कार्तिक स्नान के प्रताप से कालांतर में तुम राजा के कुल में जन्म लोग और अंत में बैकुंठ धाम को प्राप्त करोगे |
|| इति द्वादश अध्याय समाप्तम ||
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