कार्तिक माहात्म्य पाठ -7
इतनी कथा सुनकर सूतजी से शौनक ऋषि कहने लगे कि हे सूतजी ! आप कृपा करके कार्तिक तथा तुलसी का माहात्म्य कहिये| तब सूतजी कहने लगे कि हे ऋषियों जो तुमने मुझसे पूछा है यही प्रश्न एक समय नारदजी से राजा पृथु ने किया था और जो कुछ उत्तर नारद जी ने दिया, वही मैं तुमसे कहता हूँ|
एक समय राजा पृथु नारद जी से कहने लगे कि नारद जी ! भगवान को तुलसी क्यों इतनी अधिक प्रिय हैं| आप इसका माहात्म्य कहिय| तब नारद जी कहने लगे- एक समय राजा बहुत से देवताओं और अप्सराओं सहित महादेव जी के दर्शन को गया | सो जब कैलाश में पहुंचे तब एक बड़े भारी आकार वाले, भयंकर नेत्रों वाले पुरुष को देखकर इंद्र ने पूछा कि तू कौन है और शिव कहाँ हैं? जब कई बार पूछने पर भी उनसे कोई उत्तर नहीं दिया तो इंद्र ने क्रोध में आकर अपना वज्र उसके कण्ड पर मारा, जिससे उसका कंठ नीला हो गया, परन्तु इन्द्र वज्र भी भस्म हो गया | एक बड़े भारी आकार वाले, भयंकर नेत्रों वाले पुरुष को देखकर इंद्र ने पूछा कि तू कौन है और शिव कहाँ हैं? जब कई बार पूछने पर भी उसने कोई उत्तर नहीं दिया तो इंद्र को क्रोध में आकर अपना वज्र उसके कण्ड पर मारा, जिससे उसका कंठ नीला हो गया, परन्तु इंद्र का वज्र भी भस्म हो गया| फिर उसकी आँख से ऐसी प्रचण्ड अग्नि निकली मनो इंद्र सहित सरे संसार को भस्म कर देगी| ऐसी स्थिति देखकर बृहस्पतिजी हाथ जोड़कर और इंद्र को दण्डाकार झुकाकर शिव की स्तुति करने लगे कि हे देवाधिदेव त्रिपुरासुर तथा आकासुर का नाश करने वाले, यज्ञ का फल देने वाले त्रिपुरारी ! आपको नमस्कार है| ब्राह्मणों की रक्षा आपको नमस्कार है नारद कहने लगे कि हे राजा पृथु! इस प्रकार स्तुतित सुनने पर श्री महादेव जी ने त्रिलोकी को दग्ध कर देने वाली अग्नि को शांत कर दिया और कहने लगे कि हे देवताओं! वर मागें, मैं आपकी स्तुति सुनकर अति प्रसन्न हुआ हूँ| हमने इंद्र को जीवन दान दिया और हे बृहस्पति जी आज से तुम्हारा नाम जीव होगा| बृहस्पति जी कहने लगे की यदि आप प्रसन्न हैं| तो इंद्र की रक्षा कीजिए और संसार का दाह कर सकने वाली अग्नि जो आपके नेत्र से उत्पन्न हुई है, उसको शांत करिये तब शिव कहने लगे कि नेत्र से निकली हुई अग्नि वापस कैसे जाये| अतः हम इसको दूर फेकतें है ऐसा कहकर अग्नि को हाथ में लेकर समुद्र में फेंक दिया वह गंगा के संगम (गंगा सागर ) में जाकर गिरी और बालक हो रोने लगी| उसके रोने के शब्द से पृथ्वी कांपने लगी तथा सातों लोक बहरे हो गए |
ऐसा आश्चर्य देखकर वहां पर आये हुए ब्रह्मा जो समुद्र को गोद में बालक को देखकर आश्चर्य से पूछने लगे कि यह बालक किसका है? समुद्र ने बड़े आदर से बालक को उठाकर ब्रह्म जी की गोद में दे दिया और कहने लगे कि यह मेरा पुत्र गंगा से उत्पन्न हुआ है, आप इसके जात कर्म करिये| फिर उस बालक ने ब्रह्माजी की दाढ़ी पकड़कर जोर से मरोड़ी की ब्रह्म जी के नेत्रों से आँसू आ गए| किसी प्रकार दाढ़ी छुड़े तो ब्रह्मा जी ने कहा की हमारी आँखों से जल निकाला है अतः इस बालक का नाम जालंधर होगा परन्तु यह शिव के अतिरिक्त और किसी के हाथ से नहीं मरेगा, क्योँकि यह शिव के अंश से ही उत्पन्न हुआ है | यह अभी युवा हो जायेगा| तब ब्रह्माजी शुक्राचार्य को बुलाकर और उसका राज्याभिषेक करके अन्तर्धान हो गए| तब समुद्र ने कालनेमि की कन्या वृंदा के साथ उसका विवाह कर दिया जो कि पतिव्रताओं में सबसे प्रथम और अति सुन्दर थी| परम सुंदरी वृंदा के साथ विवाह कर जालंधर अति प्रसन्नता से दिन बिताने लगा| जब जालंधर घर में आता तो वृंदा अपने हाथ से पंखा झलती, वह अपने पति को नारायण समझकर उसकी सेवा किया करती थी|
इतना कहकर नारद जी बोले - हे राजा पृथु ! देवताओं से डर कर जो सब दैत्य पाताल मैं भाग गए वे जालंधर का अभय पाकर फिर पृथ्वी पर आकर घूमने लगे उसी समय जालंधर ने कटे सिर राहु को देखा तो उसने शुकरचर्य से इसका कारण पूछा| तब शुक्राचार्य ने समुद्र मंथन तथा देवताओं द्वारा रत्नों का हरण की कथा सुनाई| इस प्रकार इस पिता का मंथन और दैत्यों का अनादर सुनकर जालंधर ने क्रोध में आकर धस्मर नाम वाले दूत को बुलाकर सुधर्मा के पास भेजा| वह सभा में जाकर अभिमान पूर्वक इंद्र को नमस्कार न करके कहने लगा कि दैत्यपति जालंधर ने जो कुछ कहा है वः सब तुम सुनो| हमारे पिता का मंथन करके को तुमने रतन लिए हैं उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है अतः वे रतन हमको वापिस कर दो| धस्मर के ऐसे वचन सुनकर इंद्र भय और विस्मय से कहने लगा की समुद्र सदैव हमारे शत्रु दानवों को रक्षा करता है अतः हमने उसको भयंकर रतन लिए हैं इसलिए उन पर दैत्यों का कोई अधिकार नहीं है| दूत ने ये सब समाचार जालंधर से जाकर कहा तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ और देवताओं को जीतने का उपाय सोचने लगा| उसने सब दिशाओं तथा पातालों में अपने दूत भेजकर सब दैत्यों को बुलाया और शुम्भ तथा निशुम्भ को अपना सेनापति बनाकर स्वर्ग के नंदन वन में जाकर इंद्र को अमरवती पूरी को घेर लिया|
तब देवता भी युद्ध के लिए बाहर निकल आये और अनेक प्रकार के शास्त्रत्रो से देवताओं तथा दैत्यों का युद्ध होने लगा| वे सब एक दूसरे को मार-मार कर गिरने लगे, सब तरफ रुधिर बहने लगा| मर कर गिरे हुए घोड़ों और हाथियों से पृथ्वी भर गई| इधर-युद्ध में मारे गए दैत्यों को शुकरचर्य अपनी संजीवनी विद्या से जीवन देने लगे इधर बृहस्पति जी द्रोणाचल की दिव्य औषधियों द्वारा देवताओं को जीवित होने का वृतांत दैत्यों ने शुक्राचार्य से जाकर कहा तो जालंधर दैत्य ने अपने अनुचरों को द्रोणाचल पर्वत को समुद्र में फेंके देने का आदेश दिया, तब दैत्यों ने द्रोणाचल पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और फिर आकर संग्राम करने लगे| जब देवताओं को जीवित करने के लिए औषधि लेने बृहस्पति जी गए तो दिव्य पर्वत को न देख और देवताओं का दैत्यों के द्वारा निरंतर संहार होते देखकर वे घबराकर कहने लगे कि हे देवताओं ! शीघ्र ही यहां से भागो, यह दैत्य शंकर के अंश से उत्पन्न हुए हैं अतः वह तुम से नहीं मरेंगे| गुरूजी की यह बात सुनकर देवता भय के मारे देशों दिशाओं में भागने लगे और जालंधर दैत्य ने जीत के नगाड़े बजाते हुए देवों की अमरावती नगरी में प्रवेश किया सब देवता भय के मारे सुमेरु पर्वत की कन्दराओं में जाकर छिप गए| सब देवों के भाग जाने पर जालंधर इंद्र की पूरी अमरावती शुम्भ निशुम्भ अधिकार में सौंप कर स्वंय देवताओं का पीछा करने के लिए सुमेरु पर्वत की ओर गया| इन्द्रादिक सब देवता जालंधर को फिर आता हुआ देखकर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे| बोले हे मच्छ कच्छ आदि अनेक रूप धारण करने वाले, भक्तों के दुखों का नाश करने वाले, सारी सृष्टि का पालन तथा संहार करने वाले शंख चक्र गदा और पदम को धारण करने वाले आपको नमस्कार है|
भगवान विष्णु देवताओं की स्तुति सुन और उनको दुखी जानकर शीघ्रता से उठ गरुड़ पर सवार होकर जाने लगे तो लक्ष्मी जी ने पूछा कि भगवान आप कहाँ जा रहे हैं? तब उन्होंने उत्तर दिया कि तुम्हारे भाई जालंधर से पीड़ित देवताओं की सहायता के निमित जा रहा हूँ| तब लक्ष्मी जी कहने लगीं की भगवान! मैं आपकी परम प्रिय हूँ, तब आप मेरे भाई को कैसे मरेंगे? तब भगवान ने कहा की शंकर से उत्पन्न और ब्रह्मा जी के वचन से हम जालंधर को कदापि नहीं मरेंगे| ऐसा कहकर शंख चक्र और खड्ग लेकर जालंधर के साथ युद्ध के लिए चल दिए जिस समय भगवान युद्ध के लिए गए तो बहुत से दैत्य गरुड़ के पंखों के वेग से ही मारे गए| पवन से पीड़ित दैत्यों को देखकर जालंधर को अत्यंत क्रोध आया और वह भी विष्णु के सम्मुख युद्ध को आया| उस समय भगवान विष्णु और जालंधर दैत्य का महा घोर युद्ध हुआ| आकाश मेघों की तरह बाणों से ढक गया| तब भगवान ने जालंधर के ध्वजा, छत्र, घोड़े और धनुष सब अपने बाणों से काट डाले| जालंधर ने भी गरुड़ के मस्तक पर गदा मारी, जिसने गरुड़ को मूर्छित कर दिया| भगवान ने उसकी गदा को अपनी तलवार से काट दिया, फिर दोनों का मल्ल युद्ध हुआ| जालंधर ने भगवान की छाती में मुक्का मारा| उस समय भगवान और जालंधर के इस घोर युद्ध को देखकर सारा संसार भयभीत होकर कम्पायमान हो गया|
तब भगवान विष्णु ने कहा कि हे दैत्य राज! तुम्हारा और हमारा युद्ध ठीक नहीं, क्योँ तुम लक्ष्मी के भाई हो, तब जालंधर ने कहा, यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझको यही वरदान दें कि लक्ष्मी जी तथा अपने गणों सहित आप मेरे घर में वास करो| 'एवत्मस्तु' (ऐसा ही होगा) कहकर भगवान लक्ष्मी जी सहित जालंधर नगर में चले गए| तब जालंधरदेवताओं के स्थान पर सब दैत्यों को नियुक्त करके जालंधर नगर मैं निवास करने लगा और देव, गन्धर्व, किन्नर यक्ष आदि के पास जो भी रत्न थे, वे सब अपने अधिकार में करके निशुम्भ को शासन करने के लिए पाताल में भेज दिया| वहां उसने शेषादि नागों को वश में कर लिया| इस प्रकार जालंधर देव, गन्धर्व, किन्नर यक्ष और मनुष्य सबको अपनी प्रजा बनाकर पुत्र समान तथा धर्म निति से उनका पालन करते हुए त्रिलोकी का राज्य भोगने लगा|
नारदजी बोले - हे राजा पृथु! एक समय भगवान के दर्शन करने तथा जालंधर की राज्य लक्ष्मी जी को देखने लिए हम भी वहां गए|
ऐसा आश्चर्य देखकर वहां पर आये हुए ब्रह्मा जो समुद्र को गोद में बालक को देखकर आश्चर्य से पूछने लगे कि यह बालक किसका है? समुद्र ने बड़े आदर से बालक को उठाकर ब्रह्म जी की गोद में दे दिया और कहने लगे कि यह मेरा पुत्र गंगा से उत्पन्न हुआ है, आप इसके जात कर्म करिये| फिर उस बालक ने ब्रह्माजी की दाढ़ी पकड़कर जोर से मरोड़ी की ब्रह्म जी के नेत्रों से आँसू आ गए| किसी प्रकार दाढ़ी छुड़े तो ब्रह्मा जी ने कहा की हमारी आँखों से जल निकाला है अतः इस बालक का नाम जालंधर होगा परन्तु यह शिव के अतिरिक्त और किसी के हाथ से नहीं मरेगा, क्योँकि यह शिव के अंश से ही उत्पन्न हुआ है | यह अभी युवा हो जायेगा| तब ब्रह्माजी शुक्राचार्य को बुलाकर और उसका राज्याभिषेक करके अन्तर्धान हो गए| तब समुद्र ने कालनेमि की कन्या वृंदा के साथ उसका विवाह कर दिया जो कि पतिव्रताओं में सबसे प्रथम और अति सुन्दर थी| परम सुंदरी वृंदा के साथ विवाह कर जालंधर अति प्रसन्नता से दिन बिताने लगा| जब जालंधर घर में आता तो वृंदा अपने हाथ से पंखा झलती, वह अपने पति को नारायण समझकर उसकी सेवा किया करती थी|
इतना कहकर नारद जी बोले - हे राजा पृथु ! देवताओं से डर कर जो सब दैत्य पाताल मैं भाग गए वे जालंधर का अभय पाकर फिर पृथ्वी पर आकर घूमने लगे उसी समय जालंधर ने कटे सिर राहु को देखा तो उसने शुकरचर्य से इसका कारण पूछा| तब शुक्राचार्य ने समुद्र मंथन तथा देवताओं द्वारा रत्नों का हरण की कथा सुनाई| इस प्रकार इस पिता का मंथन और दैत्यों का अनादर सुनकर जालंधर ने क्रोध में आकर धस्मर नाम वाले दूत को बुलाकर सुधर्मा के पास भेजा| वह सभा में जाकर अभिमान पूर्वक इंद्र को नमस्कार न करके कहने लगा कि दैत्यपति जालंधर ने जो कुछ कहा है वः सब तुम सुनो| हमारे पिता का मंथन करके को तुमने रतन लिए हैं उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है अतः वे रतन हमको वापिस कर दो| धस्मर के ऐसे वचन सुनकर इंद्र भय और विस्मय से कहने लगा की समुद्र सदैव हमारे शत्रु दानवों को रक्षा करता है अतः हमने उसको भयंकर रतन लिए हैं इसलिए उन पर दैत्यों का कोई अधिकार नहीं है| दूत ने ये सब समाचार जालंधर से जाकर कहा तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ और देवताओं को जीतने का उपाय सोचने लगा| उसने सब दिशाओं तथा पातालों में अपने दूत भेजकर सब दैत्यों को बुलाया और शुम्भ तथा निशुम्भ को अपना सेनापति बनाकर स्वर्ग के नंदन वन में जाकर इंद्र को अमरवती पूरी को घेर लिया|
भगवान विष्णु देवताओं की स्तुति सुन और उनको दुखी जानकर शीघ्रता से उठ गरुड़ पर सवार होकर जाने लगे तो लक्ष्मी जी ने पूछा कि भगवान आप कहाँ जा रहे हैं? तब उन्होंने उत्तर दिया कि तुम्हारे भाई जालंधर से पीड़ित देवताओं की सहायता के निमित जा रहा हूँ| तब लक्ष्मी जी कहने लगीं की भगवान! मैं आपकी परम प्रिय हूँ, तब आप मेरे भाई को कैसे मरेंगे? तब भगवान ने कहा की शंकर से उत्पन्न और ब्रह्मा जी के वचन से हम जालंधर को कदापि नहीं मरेंगे| ऐसा कहकर शंख चक्र और खड्ग लेकर जालंधर के साथ युद्ध के लिए चल दिए जिस समय भगवान युद्ध के लिए गए तो बहुत से दैत्य गरुड़ के पंखों के वेग से ही मारे गए| पवन से पीड़ित दैत्यों को देखकर जालंधर को अत्यंत क्रोध आया और वह भी विष्णु के सम्मुख युद्ध को आया| उस समय भगवान विष्णु और जालंधर दैत्य का महा घोर युद्ध हुआ| आकाश मेघों की तरह बाणों से ढक गया| तब भगवान ने जालंधर के ध्वजा, छत्र, घोड़े और धनुष सब अपने बाणों से काट डाले| जालंधर ने भी गरुड़ के मस्तक पर गदा मारी, जिसने गरुड़ को मूर्छित कर दिया| भगवान ने उसकी गदा को अपनी तलवार से काट दिया, फिर दोनों का मल्ल युद्ध हुआ| जालंधर ने भगवान की छाती में मुक्का मारा| उस समय भगवान और जालंधर के इस घोर युद्ध को देखकर सारा संसार भयभीत होकर कम्पायमान हो गया|
तब भगवान विष्णु ने कहा कि हे दैत्य राज! तुम्हारा और हमारा युद्ध ठीक नहीं, क्योँ तुम लक्ष्मी के भाई हो, तब जालंधर ने कहा, यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझको यही वरदान दें कि लक्ष्मी जी तथा अपने गणों सहित आप मेरे घर में वास करो| 'एवत्मस्तु' (ऐसा ही होगा) कहकर भगवान लक्ष्मी जी सहित जालंधर नगर में चले गए| तब जालंधरदेवताओं के स्थान पर सब दैत्यों को नियुक्त करके जालंधर नगर मैं निवास करने लगा और देव, गन्धर्व, किन्नर यक्ष आदि के पास जो भी रत्न थे, वे सब अपने अधिकार में करके निशुम्भ को शासन करने के लिए पाताल में भेज दिया| वहां उसने शेषादि नागों को वश में कर लिया| इस प्रकार जालंधर देव, गन्धर्व, किन्नर यक्ष और मनुष्य सबको अपनी प्रजा बनाकर पुत्र समान तथा धर्म निति से उनका पालन करते हुए त्रिलोकी का राज्य भोगने लगा|
नारदजी बोले - हे राजा पृथु! एक समय भगवान के दर्शन करने तथा जालंधर की राज्य लक्ष्मी जी को देखने लिए हम भी वहां गए|
कार्तिक अध्याय -7 समाप्तम
- कार्तिक माहात्म्य-21 इक्कीसवां अध्याय | Kartik Mahatym Chapter-21
- Kartik Mahatmya Chapter-22 | कार्तिक माहात्म्य-22 - बाईसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-23 | कार्तिक माहात्म्य-23 - तेईसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-24 | कार्तिक माहात्म्य-24 - चौबीसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-25 | कार्तिक माहात्म्य-25 - पच्चीसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-26 | कार्तिक माहात्म्य-26 - छब्बीसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-27 | कार्तिक माहात्म्य-27 - सत्ताईसवां अध्याय
- Kartik Mahatmya Chapter-28 | कार्तिक माहात्म्य-28 - अट्ठाईसवां अध्याय
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- Kartik Mahatmya Chapter-35 | कार्तिक माहात्म्य-35 - पैंतीसवां अध्याय
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