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     कार्तिक माहात्म्य अध्याय-14 

    अब तब की कथाओं को भक्तिपूर्वक सुनने के बाद महाराज पृथु ने नारद जी से निवेदन किया- हे देवऋषि ! आप सर्वज्ञाता है और मैं  अज्ञानी| अब आप कृपा करके संतान वृद्धि तथा सुख सपंति देने वाली महाविद्या, महामाया, महामेघा , महास्मृति, महामोहि, महादेवी, महा-ईश्वरी तथा सर्व-ईश्वरी अहोई देवी की उत्पति तथा इनका व्रत कब और कैसे किया जाता है, इस बारे में हमें  विस्तारपूर्वक बतलाये| 

    महाराज पृथु द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर नारदजी एक प्राचीन कथा सुनाते हुए बोले-हे राजन एक समय कलिकाल में बड़ा भारी दुभिर्क्ष  पड़ा| भीषण अकाल और महामारी फैलने से अनेक व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हुई| तब सब लोग इस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय सोचने लगे| अंत में निश्चय करके कार्तिक कृष्णा सप्तमी को सबने व्रत रखा| व्रत के प्रभाव से सायंकाल चमुंडा देवी हाथ में नर-मुंड लिए प्रकट होकर कहने लगीं| मैं  रूद्र सहित विहार करने के लिए यहाँ आई हूँ, परन्तु समस्त संसार में पाप छाया हुआ है| ब्राह्मण वेदहीन, क्षत्री सामथ्य्रहीन तथा वैश्य और शूद्र धर्महीन हो गए है| स्त्रियों ने पतिव्रत धर्म छोड़ दिया है | इसलिए सभी लोगों को अहोई का व्रत करना चाहिए| कार्तिक कृष्णा सप्तमी तथा अष्टमी को केवल रोगियों को छोड़कर शेष सभी स्त्री परुष सरे दिन भोजन न करके सायंकाल अहोई देवी का पूजन करें|  अहोई देवी मेरा ही नाम है, अतः  सभी व्यक्ति अहोई पूजन को मेरा ही पूजन मानकर भक्तिभाव से करें| 

    अहोई अष्टमी पूजन का विधान बताते हुए चामुण्डा देवी ने कहा- सभी व्यक्ति अपने घरों को गोबर और मिट्टी से लीपकर साफ करें| फिर काला, पीला, हरा, तथा लाल इन चार रंगों से द्वार पर मेरी मूर्ति बनाये और स्वादिष्ट पकवान बनाकर मेरी पूजा करें| जब चामुण्डा देवी यह कह रही थीं, तभी एक धीवर की स्त्री बोली-हे माता! हम नीच लोगों का कर्तव्य भी बतलायें| तब देवी ने कहा - तुम लोग भी मेरे भक्त हो, सो सब लोग मेरा पूजन करके तुम्हारी संतानों को पूजेंगे तभी उनकी पूजा सफल होगी| मेरी पूजा के बाद कुम्हारिन तथा मालिन की भी पूजा होगी| इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गई| सभी व्यक्तियों ने चामुण्डा देवी के कथानुसार व्रत और पूजन किया, तो सके संकट दूर हो गए और सारा संसार सुखपूर्वक रहने लगा| 

    अहोई अष्टमी की कथा सुनने के पश्चात राजा पृथु ने नारदजी से पूछा- हे ऋषिवर! महीनों में कार्तिक और तिथियों में एकादशी को सर्वश्रेष्ठ क्योँ माना गया है? कृपा करके बतलाई| तब नारदजी ने कहा- हे राजन! एक बार यही प्रश्न सत्यभामाजी ने भगवान कृष्णा से पूछा था| भगवान श्री कृष्णा ने जो उत्तर सत्यभामा को दिया था वही में तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिए-

    एक समय सत्यभामाजी ने श्रीकृष्ण जी से पूछा - हे प्राणनाथ! जब सभी मास और तिथियां बराबर हैं तब कार्तिक मास और एकदशी तिथि क्योँ सर्वोत्तम मानी गई है? तब श्री कृष्णा जी ने कहा- 'हे प्रिय 'शंख नामक एक दैत्य समुद्र का पुत्र था| वह दैत्य इतना बलवान था कि  उसने इन्द्रादि देवताओं को स्वर्ग से निकालकर उनका स्थान स्वंय ले लिया| सब देवता उससे भयभीत होकर अपने बाल - बच्चों सहित पर्वतों की कन्दराओं में चले गए| वह दैत्य सोचने लगा कि मैंने देवताओं का स्थान तो ले लिया, लेकिन वे जीते नहीं गए| ऐसा प्रतीत होता है कि देवता वेद मन्त्रों से बलशाली है, अतएव मुझे मन्त्रों सहित वेदों का हरण कर लेना चाहिए| जब उसने ऐसा विचार किया तो वेद डर के मारे समुद्र में जाकर छिप गए ब्रह्मा आदि सब देवताओं ने संसार को वेद-विहीन देखा तो सभी देवी-देवता भगवान विष्णु की शरण में गए| शेषशय्या पर भगवान को निद्रामग्न देखकर सभी देवता उन्हें जगाने के लिए स्तुतियाँ, भजन, कीर्तन और गायन वादन आदि क्रियाएँ करने लगे| 

    भगवान श्रीविष्णु के जाग जाने पर सभी देवताओं ने :

    • आवाहन 
    • आसन 
    • पांघ 
    • अर्ध्य 
    • आचमन 
    • स्नान 
    • वस्त्र 
    • यज्ञोपवीत 
    • चन्दन 
    • पुष्प 
    • धूप 
    • दीप 
    • नैवेध 
    • ताम्बूल 
    • प्रदिक्षणा  

    तथा नमस्कार द्व्रारा भगवान विष्णु का पूजन किया| तब विष्णु भगवान प्रसन्न होकर देवताओं से कहने लगे- हे देवताओं! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ| अतएव शंख आदि दैत्यों को मारकर, मैं चारों वेदों को शीघ्र ही ले आऊंगा| परन्तु आज से वेद बीज मन्त्रों सहित कार्तिक मास में जल में निवास करेंगे| अतएव कार्तिक के महीने में जो कोई जल में स्नान करेगा, उसको यज्ञ करने के सामान फल प्राप्त होगा और उसके समस्त विघ्न दूर हो जाएंगे| हे देवताओं! आज एकादशी के दिन आप सबने मुझे जगाया है, इसलिए सब तिथियों में एकादशी की मान्यता अधिक होगी | वस्तुत कार्तिक तथा एकादशी का व्रत मुझे अत्यंत प्रिय है| 

    आगे की कथा सुनाते हुए नारदजी ने कहा- हे राजन! इतना कहकर भगवान मच्छ (मछली) का रूप धारण करके विंध्याचल में निवास कर रहे महर्षि कश्यपजी की अंजुली में आ गये| कश्यपजी ने उनको कमंडल में डाल दिया| जब कमंडल भर गया तो मत्स्य रूपधारी भगवान कहने लगे कि हमको कोई बड़ा स्थान दो| तब कश्यपजी ने घड़ा दिया| घड़ा भी भर गया तब उन्होंने कुएं में छोड़ दिया, परन्तु भगवान मत्स्य रूप में तेजी से बढते गे अतः कश्यपजी ने उनको समुद्र में डाल दिया| भगवान ने एक अत्यन्त विशाल मछली का रूप धारण करके दैत्यराज शंखासुर को मार दिया| 

    शंखासुर को मारने के पश्चात भगवान मत्स्य रूप त्यागकर विश्राम हेतु बद्रीनारयण चले गए| बद्रीनारायण में भगवान ने देवताओं से कहा- हमने शंखासुर को मार दिया है, अतः ऋषि और मुनि जाकर समुद्र के अंदर से वेदों को ढूंढ लाएँ , तब तक देवताओं सहित प्रयाग में मेरा निवास रहेगा | तब ऋषियों ने अपने तपोबल द्वारा सुमद्र में से वेदों के छः अंगों 

    1. छंद
    2. व्याकरण 
    3. कोष 
    4. वैधक 
    5. ज्योतिष तथा 
    6. स्मृति 
    को ढूंढ निकाला जिस वेद का जो भाग जिस ऋषि को मिला, तब से वह भाग उसी ऋषि का माना जाता है| इसके बाद समस्त ऋषि ब्रह्मादि देवताओं सहित प्रयाग आए और उन्होंने वहाँ पर अष्वमेघ यज्ञ किया| इसलिए प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है| प्रयागराज में स्नान, दान तथा यज्ञादि करने वालों के जन्म-जन्मांतर के पाप समूल नाश हो जाते हैं, और वे मोक्ष के अधिकारी बन जाते है, इसमें संदेह नहीं| 


    || इति कार्तिक माहात्म्य अध्याय-14 समाप्तम || 

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