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    गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana (succinct) :- तेरहवाँ अध्याय (Thirteenth Chapter)

    गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana (succinct) :- तेरहवाँ अध्याय (Thirteenth Chapter)


    "अशौचकाल का निर्णय, अशौच में निषिद्ध कर्म, सपिण्डीकरण  श्राद्ध, पिण्डमेलन की प्रक्रिया, शय्यादान, पददान तथा गया श्राद्ध की महिमा "

    गरुड़जी ने कहा – हे प्रभो ;- सपिण्डन की विधि, सूतक का निर्णय और शय्यादान तथा पददान की सामग्री एवं उनकी महिमा के विषय में कहिए।


    श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य ;-  सपिण्डीकरण आदि सम्पूर्ण क्रियाओं के विषय में बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मृत प्राणी प्रेत नाम को छोड़कर पितृगण में प्रवेश करता है, उसे सुनो। जिनका पिण्ड रुद्रस्वरुप पितामह आदि के पिण्डों में नहीं मिला दिया जाता, उनकों पुत्रों के द्वारा दिये गये अनेक प्रकार के दान प्राप्त नहीं होते। उनका पुत्र भी सदा अशुद्ध रहता है कभी शुद्ध नहीं होता क्योंकि सपिण्डीकरण के बिना सतक की निवृत्ति अर्थात समाप्ति नहीं होती। इसलिए पुत्र के द्वारा सूतक के अन्त में सपिण्डन किया जाना चाहिए।


    मैं सभी के लिए सूतकान्त का यथोचित काल कहूँगा। ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। प्रेत संबंधी सूतक में सपिण्डी दस दिन में शुद्ध होते हैं। सकुल्या (कुल के लोग) तीन रात में शुद्ध होते हैं और गोत्रज स्नान मात्र से शुद्ध हो जाते हैं। चौथी पीढ़ी तक के बान्धव दस रात में, पाँचवीं पीढ़ी के लोग छ: रात में, छठी पीढ़ी के चार दिन में और सातवीं पीढ़ी के तीन दिन में, आठवीं पीढ़ी के एक दिन में, नवीं पीढ़ी के दो प्रहर में तथा दसवीं पीढ़ी के लोग स्नान मात्र से मरणाशौच और जननाशौच से शुद्ध हो जाते हैं।


    देशान्तर में गया हुआ कोई व्यक्ति अपने कुल के जननाशौच या मरणाशौच के विषय का समाचार दस दिन के अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतने में जितना समय शेष रहता है, उतने समय के लिए उसे अशौच होता है। दस दिन बीत जाने के बाद और एक वर्ष के पहले तक ऎसा समाचार मिलने पर तीन रात तक अशौच रहता है। संवत्सर अर्थात एक वर्ष बीत जाने पर समाचार मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।

    मरणाशौच के आदि के दो भागों के बीतने के पूर्व अर्थात छ: दिन तक यदि कोई दूसरा अशौच आ पड़े तो आद्य अशौच की निवृति के साथ ही दूसरे अशौच की भी निवृत्ति अर्थात शुद्धि हो जाती है। किसी बालक की दाँत निकलने से पूर्व मृत्यु होने पर सद्य: अर्थात उसके अन्तिम संस्कार के बाद स्नान करने पर, चूडाकरण अर्थात मुण्डन हो काने पर एक रात, व्रतबन्ध होने पर तीन रात और व्रतबन्ध के पश्चात मृत्यु होने पर दस रात का अशौच होता है। जब किसी भी वर्ण की कन्या की मृत्यु जन्म से लेकर सत्ताईस मास की अवस्था तक हो जाए तो सभी वर्णों में समान रुप से सद्य: अशौच की निवृत्ति हो जाती है।


    इसके बाद वाग्दानपर्यन्त एक दिन का और इसके बाद अथवा बिना वाग्दान  के भी सयानी कन्याओं की मृत्यु होने पर तीन रात्रि का अशौच होता है, यह निश्चित है। वाग्दान के अनन्तर कन्या की मृत्यु होने पर पितृकुल और वरकुल दोनों को तीन दिन का तथा कन्यादान हो जाने पर केवल पति के कुल में अशौच होता है। छ: मास के अंदर गर्भस्त्राव हो जाने पर जितने माह का गर्भ होता है, उतने ही दिनों में शुद्धि होती है।


    इसके बाद अर्थात छ: माह के बाद गर्भस्त्राव हो तो उस स्त्री को अपनी जाति के अनुरुप अशौच होता है। गर्भपात होने पर सपिण्ड की सद्य: (स्नानोत्तर) शुद्धि हो जाती है। कलियुग में  जननाशौच और मरणाशौच से सभी वर्णों की दस दिन में शुद्धि हो जाती है, ऎसा शास्त्र का निर्णय है। मरणाशौच में आशीर्वाद, देवपूजा, प्रत्युत्थान (आगन्तुक के स्वागतार्थ उठना) अभिवादन, पलंग पर शयन अथवा किसी अन्य का स्पर्श नहीं करना चाहिए।

    इसी प्रकार मरणाशौच में संध्या, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पन, ब्राह्मणभोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति सूतक में नित्य-नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म करता है, उसके द्वारा पहले किये गये नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं। व्रती, मन्त्रपूत, अग्निहोत्री ब्राह्मण, ब्रह्मनिष्ठ, यती और राजा – इन्हें सूतक नहीं लगता।


    विवाह, उत्सव अथवा यज्ञ में मरणाशौच हो जाने पर उस अशौच की प्रवृत्ति के पूर्व बनाया हुआ अन्न भोजन करने योग्य होता है – ऎसा मनु ने कहा है। सूतक ना जानने के कारन जो व्यक्ति सूतक वाले घर से अन्नादि कुछ ग्रहण करता है, वह दोषी नहीं होता, किंतु याचक को देने वाला दोष का भागी होता है। जो सूतक को छिपाकर ब्राह्मण को  अन्न देता है, वह दाता तथा सूतक को जानकर भी जो ब्राह्मण सूतकान्न का भोजन करता है, वे दोनों ही दोषी होते हैं।


    इसलिए सूतक से शुद्धि प्राप्त करने के लिए पिता का सपिण्डन-श्राद्ध करना चाहिए तभी वह मृतक पितृगणों के साथ पितृलोक में जाता है। तत्त्वदर्शी मुनियों ने बारहवें दिन, तीन पक्ष में, छ: मास में अथवा एक वर्ष पूर्ण होने पर सपिण्डीकरन करने के लिए कहता हूँ।कलियुग में धार्मिक भावना के अनित्य होने से, पुरुषों की आयु  क्षीण होने से और शरीर की अस्थिरता के कारण बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण कर लेना प्रशस्त है। गृहस्थ के मरने पर व्रतबन्ध, उत्सव आदि, व्रत, उद्यापन तथा विवाहादि कृत्य नहीं होते। जब तक पिण्डमेलन नहीं होता अर्थात पितरों में पिण्ड मिला नहीं दिया जाता या सपिण्डीकरण-श्राद्ध नहीं हो जाता तब तक उसके यहाँ से भिक्षु भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता, अतिथि उसके यहाँ सत्कार नहीं ग्रहण करता और नित्य-नैमित्तिक कर्मों का भी लोप रहता है।

    कर्म का लोप होने से दोष का भागी होना पड़ता है इसलिए चाहे निरग्निक हो या सार्ग्निक (अग्निहोत्री) बारहवें दिन सपिण्डन कर देना चाहिए। सभी तीर्थों में स्नान आदि करने और सभी यज्ञों का अनुष्ठान करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल बारहवें दिन सपिण्डन करने से प्राप्त होता है। अत: स्नान करके मृतावस्था में गोमय से लेपन करके पुत्र को शास्त्रोक्त विधि से सपिण्डन श्राद्ध करना चाहिए। पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय आदि से विश्वे देवों का पूजन करे और असद्गति के पितरों के लिए भूमि में विकिर देकर हाथ-पाँव धोकर पुन: आचमन करें तब वसु, रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता, पितामह तथा प्रपितामह को क्रमश: एक-एक अर्थात तीन पिण्ड प्रदान करें और चौथा पिण्ड मृतक को प्रदान करें। चन्दन, तुलसीपत्र, धूप-दीप, सुन्दर भोजन, ताम्बूल, सुन्दर वस्त्र तथा दक्षिणा आदि से पूजन करें।


    तदनन्तर सुवर्ण की शलाका से प्रेत के पिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके पितामह आदि के पिण्डों में पृथक-पृथक उसका मेलन करें अर्थात एक भाग पितामह के पिण्ड में, दूसरा भाग प्रपितामह के पिण्ड में तथा तीसरा भाग वृद्ध प्रपितामह के पिण्ड में मिलाएँ।

    हे तार्क्ष्य ;- मेरा मत है कि माता के पिण्ड का मेलन पितामही आदि के पिण्ड के साथ और पिता के पिण्ड का मेलन पितामह आदि के पिण्ड के साथ करके सपिण्डीकरण-श्राद्ध संपन्न करना चाहिए।


    जिसके पिता की मृत्यु हो गई हो और पितामह जीवित हों, उसे प्रपितामहादि पूर्व पुरुषों को तीन पिण्ड प्रदान करना चाहिए और पितृपिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके (प्रपितामह आदि) उन्हीं के साथ मेलन करें। माता की मृत्यु हो जाने पर पितामही जीवित हो तो माता के सपिण्डन-श्राद्ध में भी पितृ-सपिण्डन की भाँति प्रपितामही आदि मे मातृपिण्ड का मेलन करना चाहिए अथवा पितृपिण्ड को मेरे पिण्ड (विष्णु जी के) में और मातृपिण्ड को महालक्ष्मी पिण्ड में मिलाएँ। पुत्रहीन स्त्री का सपिण्डनादि श्राद्ध उसके पति को करना चाहिए और उसका सपिण्डीकरण उसकी सास आदि के साथ होना चाहिए। एक मतानुसार विधवा स्त्री का सपिण्डीकरण पति, श्वसुर और वृद्ध श्वसुर के साथ करना चाहिए। हे तार्क्ष्य ;- यह मेरा मत नहीं है। विधवा स्त्री का सपिण्डन पति के साथ होने योग्य है।

    हे काश्यप ;- यदि पति और पत्नी एक ही चिता पर आरुढ़ हुए हों तो तृण को बीच में रखकर शवसुरादि के पिण्ड के साथ स्त्री के पिण्ड का मेलन करना चाहिए।


    एक चिता पर माता-पिता का दाह संस्कार किये जाने पर एक ही पुत्र पहले पिता के उद्देश्य से पिण्डदान करके स्नान करे, तदनन्तर अपनी सती माता का पिण्डदान करके पुन: स्नान करे। यदि दस दिन के अन्तर्गत किसी सती ने अग्नि प्रवेश किया है तो उसका शय्यादान और सपिण्डन आदि कृत्य उसी दिन करना चाहिए, जिस दिन पति का किया जाए।

    हे गरुड़ ;- सपिण्डिकरण करने के अनन्तर पितरों का तर्पण करे और इस क्रिया में वेदमन्त्रों से समन्वित स्वधाकार का उच्चारण करे।

    इसके पश्चात अतिथि को भोजन कराएँ और हन्तकार प्रदान करें। ऎसा करने से पितर, मुनिगण, देवता तथा दानव तृप्त होते हैं। भिक्षा एक ग्रास के बराबर होती है, पुष्कल चार ग्रास के बराबर होता है और चार पुष्कलों (सोलह ग्रास) का एक हन्तकार होता है। सपिण्डीकरण में ब्राह्मणों के चरणों की पूजा चन्दन-अक्षत से करनी चाहिए और पितरों की अ़ायतृप्ति के लिये ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

    वर्ष भर जीविका का निर्वाह करने योग्य घृत, अन्न, सुवर्ण, रजत, सुन्दर गौ, अश्व, गज, रथ और भूमिका आचार्य को दान करना चाहिए। इसके बाद स्वस्तिवाचनपूर्वक मन्त्रों से कुंकुम, अक्षत और नैवेद्यादि के द्वारा ग्रहों, देवी और विनायक की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद आचार्य मन्त्रोच्चारण करते हुए यजमान का अभिषेक करे और हाथ में रक्षासूत्र बाँधकर मन्त्र से पवित्र अक्षत प्रदान करें।


    तदनन्तर विविध प्रकार के सुस्वादु मिष्टान्नों से ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और फिर दक्षिणा सहित अन्न एवं जलयुक्त बारह घट प्रदान करें” तदनन्तर ब्राह्माणि को वर्ण क्रम से अपनी शुद्धि हेतु क्रमश: जल, शस्त्र, कोड़े फर डण्डे का स्पर्श करना चाहिए अर्थात ब्राह्मण जल का, क्षत्रिय शस्त्र का, वैश्य कोड़े का तथा शूद्र डण्डे का स्पर्श करे। ऎसा करने से वे शुद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार सपिण्डन-श्राद्ध करके क्रिया करते समय पहने गये वस्त्रों का त्याग कर दें। इसके बाद श्वेत वर्ण के वस्त्र को धारण करके शय्यादान करें।


    इन्द्र सहित सभी देवता शय्यादान की प्रशंसा करते हैं, अत: मृतक के उद्देश्य से उसकी मृत्यु के बाद अथवा जीवनकाल में भी शय्या प्रदान करनी चाहिए। शय्या सुदृढ़ काष्ठ की सुन्दर एवं विचित्र चित्रों से चित्रित, दृढ़, रेशमी सूत्रों से बनी हुई तथा स्वर्णपत्रों से अलंकृत हो। श्वेत रुई के गद्दे, सुन्दर तकिये तथा चादर से युक्त हो तथा पुष्प, गन्ध आदि द्रव्यों से सुवासित हो। वह सुन्दर बन्धनों से भली भाँति बँधी हुई हो और पर्याप्त विशाल हो तथा सुख प्रदान करने वाली हो – ऎसी शय्या को बनाकर आस्तरणयुक्त (कुश या दरी-चादरयुक्त) भूमि पर रखें। उस शय्या के चारों ओर छाता, चाँदी का दीपालय, चँवर, आसन और पात्र, झारी या कलश, गड़ुआ, दर्पण, पाँच रंगों वाला चँदवा तथा शयनोपयोगी और सभी सामग्रियों को यथास्थान स्थापित करें। उस शय्या के ऊपर सभी प्रकार के आभूषण, आयुध तथा वस्त्र से युक्त स्वर्ण की श्रीलक्ष्मी-नारायण की मूर्त्ति स्थापित करें।


    सौभाग्यवती स्त्री के लिये दी जाने वाली शय्या के साथ पूर्वोक्त वस्तुओं के अतिरिक्त कज्जल, महावर, कुंकुम, स्त्रियोचित वस्त्र, आभूषण तथा सौभाग्य-द्रव्य आदि सब कुछ प्रदान करें। तदनन्तर सपत्नीक ब्राह्मण को गन्ध-पुष्पादि से अलंकृत करके ब्राह्मणी को कर्णाभरण, अंगूठी और सोने के कण्ठ सूत्र से विभूषित करें। उसके बाद ब्राह्मण को साफा, दुपट्टा और कुर्ता पहनाकर श्रीलक्ष्मी-नारायण मूर्ति के आगे सुख शय्या पर बिठाए।

    कुंकुम और पुष्पमाला आदि से श्रीलक्ष्मी-नारायण की भली भाँति पूजा करें। तदनन्तर लोकपाल, नवग्रह, देवी और विनायक की पूजा करें। उत्तराभिमुख होकर अंजलि में पुष्प लेकर ब्राह्मण के सामने स्थित होकर इस मन्त्र का उच्चारण करें – हे कृष्ण ! जैसे क्षीरसागर में आपकी शय्या है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तर में भी मेरी शय्या सूनी न हो। इस प्रकार प्रार्थना करके विप्र और श्रीलक्ष्मी-नारायण को पुष्पांजलि चढ़ाकर संकल्पपूर्वक उपस्कर (सभी सामग्रियों) के साथ व्रतोपदेशक, ब्रह्मवादी गुरु को शय्या का दान दे और कहे – “हे ब्राह्मण ! इस शय्या को ग्रहण करो” – ब्राह्मण को ‘कोSदात्कस्मा अदात्कामोSदात्कामायादात् । कामो दाता काम: प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ।।’ (यजु. 7।48), यह मन्त्र कहते हुए ग्रहण करें। इसके बाद शय्या पर स्थित ब्राह्मण को, लक्ष्मी और नारायण की प्रतिमा को हिलाएँ, तदनन्तर प्रदक्षिणा और प्रणाम करके उन्हें विसर्जित करें।


    यदि पर्याप्त धन-संपत्ति हो तो शय्या में सुखपूर्वक शयन करने के लिए सभी प्रकार के उपकरणों से युक्त अत्यन्त सुन्दर गृहदान भी करें। जो जीवितावस्था में अपने हाथ से शय्यादान करता है, वह जीते हुए ही पर्वकाल में वृषोत्सर्ग भी करे। एक शय्या एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिए। बहुत ब्राह्मणों को एक शय्या कदापि नहीं देनी चाहिए। यदि वह शय्या विभक्त अथवा विक्रय करने के लिए दी जाती है तो वह दाता के अध:पतन का कारण बनती है।


    सत्पात्र को शय्यादान करने से वांछित फल की प्राप्ति होती है और पिता तथा दान देने वाला पुत्र – दोनों इस लोक और परलोक में मुदित होते हैं। शय्यादान के प्रताप से दाता दिव्य इन्द्रलोक में अथवा सूर्यपुत्र यम के कोल में पहुँचता है, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ होकर अप्सरागणों से सेवित दाता प्रलयपर्यन्त आतंकरहित होकर स्वर्ग में स्थित रहता है। सभी तीर्थों में तथा सभी पर्व दिनों में जो भी पुण्यकार्य किये जाते हैं, उन सभी से अधिक पुण्य शय्यादान के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार पुत्र को शय्यादान करके पददान देना चाहिए। पददान के विषय में मैं तुम्हें यथावत बतलाता हूँ, सुनो। छाता, जूते, वस्त्र, अँगूठी, कमण्डलु, आसन तथा पंचपात्र – ये सात वस्तुएँ पद कही गई हैं।


    दण्ड, ताम्रपत्र, आमान्न (कच्चा अन्न), भोजन, अर्घ्यपात्र और यज्ञोपवीत को मिलाकर पद की सम्पूर्णता होती है। इस प्रकार शक्ति के अनुसार तेरह पददानों की व्यवस्था करके बारहवें दिन तेरह ब्राह्मणों को पददान करना चाहिए। इस पददान से धार्मिक पुरुष सद्गति को प्राप्त होते हैं। यममार्ग में गये हुए जीवों के लिए पददान सुख प्रदान करने वाला होता है। वहाँ यममार्ग में अत्यन्त प्रचण्ड आतप होता है, जिससे अम्नुष्य जलता है। छाता दान करने से उसके सिर पर सुन्दर छाया हो जाती है। जो जूता दान करते हैं, वे अत्यन्त कण्टकाकीर्ण यमलोक के मार्ग में अश्व पर चढ़कर जाते हैं।

    हे खेचर ;- वहाँ यममार्ग में शीत, गरमी और वायु से अत्यन्त घोर कष्ट मिलता है। वस्त्रदान के प्रभाव से जीव सुखपूर्वक उस मार्ग को तय कर लेता है।


    यम के मार्ग में माहभयंकर और विकराल तथा काले और पीले वर्ण के यमदूत मुद्रिका प्रदान करने से जीव को पीड़ा नहीं देते हैं। कमण्डलु का दान करने से अत्यन्त धूप से परिपूर्ण, वायुरहित और जलविहीन यममार्ग में जाने वाला वह प्यासा जीव प्यास लगने पर जल पीता है। मृत व्यक्ति के उद्देश्य से जो ताम्र का जल पात्र देता है, उसे एक हजार प्रपादान का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। ब्राह्मण को सम्यक्-रूप से आसन और भोजन देने पर यममार्ग में चलता हुआ जीव धीरे-धीरे सुखपूर्वक पाथेय (भोज्य-पदार्थों) का उपभोग करता है।

    इस प्रकार सपिण्डन के दिन विधानपूर्वक दान दे करके बहुत-से ब्राह्मणों को तथा चाण्डाल आदि को भी भोजन देना चाहिए। इसके बाद वर्ष के पूर्व ही बारहवें दिन सपिण्डन करने पर भी प्रत्येक मास जलकुम्भ और पिण्डदान करना चाहिए।


    हे खग ;- प्रेत कार्य को छोड़कर अन्य किसी कर्म का पुन: अनुष्ठान नहीं किया जाता, किंतु प्रेत की अक्षयतृप्ति के लिये पुन:-पुन: पिण्डदानादि करना चाहिए। अत: मैं विशेष तिथि पर म्रत्यु होने वाले जीव के मासिक, वार्षिक और पाक्षिक श्राद्ध के विषय में कुछ विशेष बात कहूँगा। पूर्णमासी तिथि पर जो मरता है उसका ऊनमासिक श्राद्ध चतुर्थी तिथि को होता है और जिसकी मृत्यु चतुर्थी तिथि को हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध नवमी तिथि को होता है। नवमी तिथि को जिसकी म्रत्यु हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध रिक्ता तिथि – चतुर्दशी को होता है। इस प्रकार पाक्षिक श्राद्ध बीसवें दिन करना चाहिए।


    यदि एक ही मास में दो संक्रांतियाँ हों तो दो महीनों का श्राद्ध मलमास में ही करना चाहिए। यदि एक ही मास में दो मास हों तो उस मास के ही वे दोनों पक्ष और वे ही तीस तिथियाँ उन दोनों महीनों की मानी जाएगी। मलमास में पड़ने वाले उन दोनों मासों के मासिक श्राद्ध के विषय में विद्वानों को यह व्यवस्था सोचनी चाहिए कि श्राद्ध-तिथि के दिन पूर्वार्द्ध में प्रथम मास का श्राद्ध करें और द्वितीयार्द्ध में दोपहर के बाद दूसरे मास का श्राद्ध करें।

    हे खग ;- संक्रान्ति रहित मास (मलमास) में भी सपिण्डीकरण तथा मासिक और प्रथम वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए। यदि वर्ष पूर्ण होने के मध्य में अधिमास आता है तो तेरह महीने पूर्ण होने के अनन्तर प्रेत का वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए।


    संक्रांति रहित मास में पिण्ड रहित श्राद्ध (आम श्राद्ध) और संक्रांतियुक्त मास में पिण्डयुक्त श्राद्ध करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम वार्षिक श्राद्ध को (मलमास तथा उसके बाद आने वाले शुद्ध मास – तेरहवें मास) दोनों ही मासों में करना चाहिए। इस प्रकार वर्ष पूर्ण होने पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए और वार्षिक श्राद्ध की तिथि को विशेष रूप से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।


    एक वर्ष पूर्ण हो जाने पर श्राद्ध में हमेशा तीन पिण्ड दान करना चाहिए। एकोद्दिष्ट श्राद्ध नहीं करना चाहिए। ऎसा करने वाला पितृघातक होता है। तीर्थश्राद्ध, गयाश्राद्ध तथा गजच्छाया योग में, युगादि तिथियों तथा ग्रहण में किया जाने वाला पितृश्राद्ध वर्ष के अंदर नहीं करना चाहिए।

    हे खगेश्वर ;- पितृभक्ति से प्रेरित हो करके पुत्र को एक वर्ष के अनन्तर ही गया श्राद्ध करना चाहिए। गया श्राद्ध करने से पितर भवसागर से मुक्त हो जाते हैं और भगवान गदाधर की कृपा से वे परम गति को प्राप्त होते हैं। गया के विष्णुपद तीर्थ में तुलसी की मंजरी से भगवान विष्णु की पादुका का पूजन करना चाहिए और उसके आलवाल आदि तीर्थों में यथाक्रम पिण्डदान करना चाहिए।

    जो व्यक्ति गयाशिर में शमी के पत्ते के समान प्रमाण वाले पिण्ड को देता है, वह सातों गोत्रों के अपने एक – सौ – एक पुरुषों का उद्धार करता है। कुल को आनन्दित करने वाला जो पुत्र गया में जाकर श्राद्ध करता है, पितरों को तुष्टि देने के कारण उसका जन्म सफल हो जाता है।

    हे खगेश्वर ;- यह सुना जाता है कि देव-पितरों ने मनु के पुत्र इक्ष्वाकु को कलापवन में यह गाथा सुनाई थी – क्या हमारे कुल में ऎसे कोई सन्मार्गगामी पुत्र होगें, जो गया में जाकर आदरपूर्वक हम लोगों को पिण्ड प्रदान करेगें?

    हे तार्क्ष्य ;- इस प्रकार जो पुत्र पितरों की आमुष्मिक (परलोक संबंधी) क्रिया करता है, वह सुखी होकर कौशिक के पुत्रों (कौशिक के सात पुत्रों की कथा मत्स्यपुराण, हरिवंशपुराण तथा पद्मपुराण आदि में विस्तार से दी गई है) की भाँति मुक्त हो जाता है।

    हे तार्क्ष्य ;- भरद्वाज के सात पुत्र पितृश्राद्ध के हेतु गोवध करके भी सात जन्मपंपराओं को भोग करके पितरों के प्रसाद से मुक्त हो गये।


    कौशिक के वे सातों पुत्र प्रथम जन्म में दशार्ण देश में सात व्याधों के रूप में उत्पन्न हुए थे। इसके बाद अगले जन्म में वे कालंजर पर्वत पर मृग के रूप में उत्पन्न हुए। फिर शरद्द्वीप में चक्रवात के रुप में उनकी उत्पत्ति हुई, अगले जन्म में मानसरोवर में हंस के रूप में उत्पन्न हुए। वे ही कुरुक्षेत्र में वेदपारगामी ब्राह्मण के रुप में उत्पन्न हुए  और पितरों के प्रति भक्तिभाव रखने के कारण वे ब्राह्मणपुत्र मुक्त हो गये। इसलिए पूरे प्रयत्न से मनुष्य को पितृभक्त होना चाहिए। पितृभक्ति के कारण मनुष्य इस लोक तथा परलोक में भी सुखी होता है।

    हे तार्क्ष्य ;- यह सब और्ध्वदैहिक क्रिया हमने तुमसे कही। यह कृत्य पुत्र की कामना को पूर्ण करने वाला, पुण्यप्रद तथा पिता को मुक्ति प्रदान करने वाला है। जो कोई निर्धन मनुष्य भी इस कथा को सुनता है, वह भी पाप से मुक्त होकर पितरों के निमित्त दिये जाने वाले दान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य मेरे द्वारा कहे गये श्राद्धों एवं दानों को विधिपूर्वक करता है और गरुड़ पुराण की कथा को सुनता है, उसके फल को सुनो –


    पिता उसको सत्पुत्र प्रदान करता है, पितामह उसे गोधन देते हैं, उसके प्रपितामह उसे बहुविध धन-संपत्ति प्रदान करते हैं और वृद्ध प्रपितामह तृप्त होकर विपुल अन्न आदि प्रदान करते हैं। इस प्रकार श्राद्ध से तृप्त होकर सभी पितर पुत्र को वांछित फल देते हैं और धर्ममार्ग से धर्मराज के प्रासाद में जाकर वे धर्मराज की सभा में आदरपूर्वक विराजमान रहते हैं।

    सूतजी ने कहा ;-  इस प्रकार श्रीविष्णु जी से और्ध्वदैहिक श्राद्ध-दानादिविषयक माहात्म्य सुनकर गरुड़्जी को अपार हर्ष हुआ।


    ।। "इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “सपिण्डनादि-सर्वकर्मनिरुपण” नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ" ।।

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