भागवत गीता तेरहवां अध्याय
श्री कृष्ण जी बोले हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इसके जानने वाले को क्षेत्रज्ञ कहते है| सम्पूर्ण क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ मुझको जान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है मेरा मत से वही ज्ञान है| यह क्षेत्र कैसे रूप का है उसमे कौन-२ विकार होते है, उसकी उत्पति किस प्रकार से हुई और क्षेत्रज्ञ का क्या प्रभाव है इत्यादि बातें संक्षेप से कहता हूँ, सुनो, अनेक ऋषियों ने अनेक प्रकार के छन्दो में इनको बताया है वेदो ने भी पृथिक-२ वर्णन किया है और हेत वाले बहुसूत्र पदों करके भी यह ज्ञान निश्चय किया गया है| पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त, प्रकृति, देशों इन्द्रियों तथा पांचों इन्द्रियों के विषय तथा इच्छा द्वेष सुख दुःख संघत चेतना धृति इनके समूह संक्षेप में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के यही विकार है मान और पाखंड से रहित सहिंसा, सहनशीलता, सरलता, गुरु की सेवा पवित्रता, अपने मन का संयम, इन्द्रियों के विषयों से विरक्त अहंकार रहित और जन्म मृत्यु बुढ़ापा रोग दुःखादि दोषों को देखना पुत्र स्त्री गृह इत्यादिक में आसक्ति न करना और इनमें अपने को सुखी दुखी न जानना और इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष विषाद रहित रहना अनन्य भाव से मेरी अनन्य भक्ति, एकांत में रहना, जन समूह में रहने से विराग सदा स्मरण रखना कि मैं परमात्मा का ही अंश हूँ ज्ञान प्राप्ति उदेश्य मोक्ष को सबसे श्रेष्ठ मानना इसे ही ज्ञान कहते हैं इससे जो भिन्न है वह अज्ञान है| अब यज्ञ का स्वरूप वर्णन करते हैं जिसको जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त होता है| वह आदि रहित बड़ो से बड़ा अकथनीय होने कहा जाता असत्य ही कहा जाता है| सब ओर मुख है सब और कान है वही जगत में सब को घेरे हुए सिथत है| वह सब इन्द्रियों के गुणों का प्रकाशक है पर उसके कोई इंद्री नहीं है, जिसको किसी से आसक्ति नहीं है पर जो सबका आधार है जो स्वंय निर्गुण पर भी चर और अचर है है, जो अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जाना नहीं जाता जो दूर भी है और निकट भी है जिसके विभाग नहीं होते पर जो भिन्न-२ भूतों में विभक्त समान रहता है समस्त भूतों का पालन नाश और उत्पन्न करने वाला वही यज्ञे है|
यह अंधकार से परे ज्योतिषमन पदर्थों को ज्योति देता है वही ज्ञान जानने योग्य पदार्थ ज्ञान के द्वारा जानने योग्य सबसे हृदय में वास करता है| इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय इनको संक्षेप में कहा इसे जानकर मेरा भक्त मेरे पद के योग्य होता है| प्रकृति और पुरुषों दोनों ही अनादि है विकारों और गुणों की उत्पति प्रकृति से हुई है कार्य और कारण को प्रकृति उत्पन्न करती है, पुरुष तो सुख और दुःख का भोक्ता है| प्रकृति के गुणों का उपभोग करता है तदनुसार उत्तम तथा अधम योनि में जन्म लेता है| इस देह में उसे उपद्रष्टा अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर परमात्मा और परम पुरुष को जो जानता महेश्वर परात्मा और परम् पुरुष कहते है इस प्रकार गुणों के साथ प्रकृति और पुरुष को जो जानता है उसका रहन - सहने चाहे जैसा हो पुर्नजन्म नहीं होता| कोई ध्यान से कोई योग से और कोई कर्म योग के द्वारा अपने को आत्मा में देखते है परन्तु कोई तो इस प्रकार न जानते हुए भी दूसरों से सुनकर ध्यान करते है और श्रध्दा से सुनकर वे भी मृत्यु के पार चले जाते है| हे अर्जुन स्थावर जंगम सब उत्पन्न प्राणी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही होता है | परमेश्वर सब भूतों में सामान रूप से है भूतों को नष्ट होने पर भी उसका नाश नहीं होता इसी भांति जो देखता है वही देखता है| सबमे सामान रूप से सिथत परमेश्वर में देखता हुआ जो आप ही आत्मा का नाश नहीं करता वह उत्तम गति प्राप्त करता है| जो यह देखता है की प्रकृत द्वारा सब कर्म होते है और आत्मा अकर्ता है वही मानों देखता है| जब वह भिन्न-२ भूतों को परमेश्वर के बीच एक रूप देखता है और उसी में उनका विस्तार देखता है तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है| हे कौन्तेय ! अनादि और निर्गुण होने से परमेश्वर अनन्य के शरीर में रहता हुआ भी वह कुछ नहीं करता न उसमे लिप्त होता है जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त होने पर भी किसी से मिलता नहीं उसी भांति देह में सर्वत्र व्याप्त यह आत्मा भी इसमें लिप्त नहीं होता है| हे भारत ! जैसे एक ही सूर्य समस्त लोक को प्रकाशित करता है वैसे ही क्षेत्रज्ञ समस्त क्षेत्र को प्रकाशित करता है| जो लोग ज्ञान दृष्टि से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद तथा भूतों की प्रकृति देखकर मोक्ष का उपाय ज्ञान लेते है वे परम् पद को पा लेता है|
भागवत गीता तेरहवां अध्याय समाप्तम
भागवत गीता तेरहवां अध्याय का माहत्म्य
श्री नारायणजी बोले- हे लक्ष्मी ! अब तेरहवां अध्याय का माहत्म्य सुनो दक्ष्णि देश हरिनाम नगर था| वहां एक व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी| वह व्यभचारी करे मास मदिरा खावे एक दिन एक पुरुष से उनसे वचन किया की अमुक स्थान में तेरे पास आऊंगी तुम वहां चलो वह पुरुष किसी और वन में चला गया और वह स्त्री उसे ढूढ़ती -२ हैरान हो गई पर मनुष्य न मिला वही भी भागता फिरे वह गणिका थककर उसका रास्ता देखने लगी देखते-२ ही सारा दिन व्यतीत हुआ प्रीतम न आया| साँझ हो गई वह गणिका प्रीतम का नाम ले लेकर पुकारने लगी| इतने में वह पुरुष मिला, दोनों बहुत प्रसन्न हो कर बैठे| इतने में एक शेर आया गणिका डर गई, तब शेर बोला आरी गणिका मैं तुझे खाऊंगा| गणिका बोली तू अपने पहले जन्म की बात कह तू कौन है| सिंह बोला में पूर्वजन्म में ब्रह्मण था झूठ बोलता था, बड़ा लोभी था जुआ खेलता था तथा दूसरे का धन हर लेता था एक दिन प्रभात के समय घर से उठकर चला मार्ग में गिरते ही देह छूट गई यमों न पकड़ लिया धर्मराज के पास ले गए देखते ही धर्मराज ने हुकुम दिया इसी घडी ब्रह्मण को सिंह का जन्म दे दो| यह देह मुझे मिली और हुकुम दिया जो प्राणी पापी दुराचार करने वाले हो तिनको तू खाया कर जो साधु वैष्णव हरिभक्त हो उनके पास न जाना| हे गणिका मुझे धर्मराज की यह आज्ञा है तिनकी आज्ञा कर सिंह की योनि में आया हूँ - तू व्यभिचारिणी गणिका पापिन है इसी से तुमको खाऊंगा इतना कह कर गणिका को खा गया| तब यह धर्मराज के पास गणिका को ले गए | धर्मराज ने हुकुम दिया इसको चाण्डालिनी का जन्म देवो| श्री नारायणजी कहते है हे लक्ष्मी ! उसने गणिका की देह त्याग चाण्डालिनी की देह पाई| कई दिनों तब वह नर्मदा नदी के तट चलती थी| वहां क्या देखा की एक साधु गीता के तेरहवां अध्याय का पाठ करता है उसने सुन लिया जब अध्याय पढ़ के भोग लगाया चाण्डालिनी के प्राण छूट गए देवदेही पाई आकाश से विमान आये तिन पर बैठकर बैकुण्ड को चली साधु ने पूछा, आरी तूने कौन पुण्य किया जिसके करने से बैकुंठ को चली है, चाण्डालिनी ने कहा, हे संतजी इस तेरे पाठ को श्रवण कर मैं देवलोक चली हूँ तब परिषदों को कहा कोई ऐसा यत्न करो कि जिस सिंह ने मुझे पूर्व गणिका के जन्म में खाया था| उसको साथ ले चलो तब उस साधु से प्रार्थना की हे संतजी गीता जी के एक श्लोक के पाठ का फल दिया तत्काल उस सिंह के देह छूटी देह देह पाई दोनों विमानों पर चढ़कर बैकुण्ड वासी हुए परमधाम को प्राप्त हुए तब श्री नारायणजी ने कहा हे लक्ष्मी ! यह तेरहवां अध्याय का माहात्म्य है| प्रीत के साथ पढ़ने के बात का कुछ फल कहा नहीं जाता अनजाने पाने से पढ़े तो भी मेरे परमधाम को प्राप्त होता है|
भागवत गीता तेरहवां अध्याय समाप्तम
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