Header Ads

  • Breaking News

    श्री गीता के ज्ञान की कथा प्रथम अध्याय प्रारम्भ 

    bhagavad gita,bhagavad gita in hindi,bhagwat geeta saar in hindi,bhagavad gita chapter 1,bhagavad gita hindi,bhagavad gita meaning in hindi,bhagwat geeta in hindi,gita in hindi,geeta saar in hindi,shrimad bhagavad gita,bhagavad gita in english,bhagavat gita hindi,bhagavad geeta,bhagavad geeta in hindi,bhagavad gita online,bhagavad gita meaning,shrimad bhagavad geeta in hindi,gita,bhagavad gita chapter,hindi vyakhya of bhagavad gita,bhagavad gita slokas,srimad bhagavad gita,gita in hindi online

    जब कौरव और पांडव महाभारत के युद्ध को चले तब राजा धृतराष्ट ने कहा मैं भी युद्ध को देखने चलूँ तब श्री व्यास देवजी ने कहा हे राजन- नेत्र के बिना क्या देखोगे तब राजा धृतराष्ट ने कहा हे प्रभुजी देखूँगा नहीं तो श्रवण तो करूंगा | तब व्यासजी ने कहा हे राजन ! तेरा सारथी सञ्जय जो कुछ महाभारत के युद्ध की लीला कुरुक्षेत्र में होगी सो तुझे यहाँ बैठे ही श्रवण करावेगा | व्यास देवजी के मुख से यह वचन सुन सञ्जय ने विनती करी हे प्रभु ! यहाँ हस्तिनापुर में बैठे मैं कुरुक्षेत्र की लीला कैसे जानूंगा तथा राजा को किस भाँति कहूँगा? तब व्यास जी ने प्रसन्न होकर सञ्जय को यह वचन कहा कि हे सञ्जय मेरी कृपा से तुझे यहाँ ही सब दिखाई देगा| व्यास जी के इतना कहते ही उसी समय संजय की दिव्य दृष्टि भई और बुद्धि उसकी दिव्य भई अब आगे महाभारत का कौतुक कहते हैं सुनो सात अक्षौहिणी सेना पांडव की ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना कौरवों की यह दोनों सेना कुरुक्षेत्र में जा एकत्र भई| 
    bhagavad gita,bhagavad gita in hindi,bhagwat geeta saar in hindi,bhagavad gita chapter 1,bhagavad gita hindi,bhagavad gita meaning in hindi,bhagwat geeta in hindi,gita in hindi,geeta saar in hindi,shrimad bhagavad gita,bhagavad gita in english,bhagavat gita hindi,bhagavad geeta,bhagavad geeta in hindi,bhagavad gita online,bhagavad gita meaning,shrimad bhagavad geeta in hindi,gita,bhagavad gita chapter,hindi vyakhya of bhagavad gita,bhagavad gita slokas,srimad bhagavad gita,gita in hindi online

    धृतराष्ट ने पूछा- हे संजय धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पांडु पुत्रों ने क्या किया संजय ने कहा- पांडवों की सेना की व्यूहित देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के समीप जाकर कहने लगे हे आचार्य ! देखिए आपके शिष्य बुद्धिमान पद पुत्र ने पांडवों को बड़ी सेना की कैसी व्यूह रचना की है| इस सेना में अर्जुन, भीम, जैसा बड़े-बड़े धुनधारी वीर युयुधान विराट, महारथी, द्रुपद, धृष्टकेतु चेकितान, बलवान काशिराज, परूजित कुंतीभोज नरों में श्रेष्ठ शौर्ये, पराकर्मी युधामन्यु बलवान उत्तमौजा, अभिमानु और द्रौपदी के पुत्र सब के सब महारथी है| हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! आपके स्मरण अर्थ अब मैं अपनी सेना के प्रधान सेनापतियों के नाम वर्णन करता हूँ | आप, भीष्म, करण  युद्ध विजयी कृपाचरी, अश्व्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, का पुत्र भूरी श्रवा तथा बहुत से शूरवीर मेरे लिए प्राण तक देने को तैयार हैं ये लोग शस्त्र चलाने में अतिनिपूर्ण है और सब युद्ध विद्या में प्रवीण है| हमारी सेना का जिसके भीष्म रक्षक हैं बड़ा बल है अब आप सब अपने अपने मोर्चो पर सावधान रहकर सेनापति भीष्म की रक्षा कीजिए| 

    कुरुवृद्ध भीष्म पितामह ने दुर्यौधन को प्रसन्न करते हुए और ऊंचे स्वर से गर्जत हुए शंख बजाया| फिर वहां चारों और शंखों, नगाड़े, ढोल, गोमुखादि अनके बाजे बजाने लगे, जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ| जिसके अनन्तर सफेद घोड़ों के बड़े रथ पर स्थित माधव श्री कृष्ण और पांडव अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को बजाया | श्री कृष्ण पञ्च जन्म और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख को और भीषण कर्म करने वाले भीम ने पौड़ नामक बड़े भारीशंख को बजाया| कुंती पुत्र राजा युधिष्ठर ने अनंत विजय, नुकूल ने सुघोष और सहदेव ने मणि पुष्पक और महा धनुधर्र काशी राज, शिखड़ी, धृष्टधुम्न, विराट अपराजित सत्य की राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और महाबाहु अभिमन्यु इन सब वीरों ने अपने-अपने शंखों को बजाया| उन शंखों के भारी शब्द से आकाश और पृथ्वी गूंज उठे और धृतराष्ट के पुत्रों के हृदय कांप उठे| हे राजन ! अर्जुन ने कौरवों को युद्ध के लिए प्रस्तुत देखकर धनुष उठाकर श्रीकृष्ण से कहा, कि हे अच्युता मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये| जिससे मैं युद्ध करने वालों को देख लूँ कि इस सभूमि में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना चाहिए|  दुबुद्धि दुर्योधन की प्रीति करने वाले जो युद्ध के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं उनको देखूंगा| संजय ने कहा, हे राजन! अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने भीष्म द्रोण आदि वीरों के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके कहा कि हे वीर! युद्ध के लिए उधत इन कौरवों को देख लो| अर्जुन ने चाचा, बाबा, गुरु, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, मित्र, श्वसुर और स्वजनों को शस्त्रों से सुसज्जित में अपने ही सब बांधवों को खड़ा देखकर परम दयाद्र हो अत्यंत खेद के साथ यह वचन कहे- है कृष्ण! युद्ध की इच्छा से आए हुए इन अपने बंधुओं को देख कर मेरे अंग ढीले होते गए है और मुख सूखा जा रहा है| 

    मेरा शरीर बेकल हो रहा है रोमांच खड़े होते हैं गाण्डीव हाथ से गिरा जाता है, त्वचा जली जा रही है| हे केशव! मुझमें यहाँ खड़े रहने की सामर्थ नहीं है, मेरा मन चक्कर खा रहा है और सब, लक्षण मैं उलटे देख रहा हूँ और संग्राम में स्वजनों का बध करके कोई लाभ नहीं होगा और हे कृष्ण! जीत, राज्य, और सुख भी नहीं चाहता हूँ| हे प्रभो ! हमको राज्य, भोग और सुख की इच्छा की जाती है, वे सब इस युद्ध में प्राण और धन की ममता छोड़ करने को तैयार है और आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले और सम्बन्धी ये सब मुझे मारे तो भी हे मधुसूदन ! मैं इन्हें मरने की इच्छा नहीं करूगां हे जनादर्न ! त्रिलोकी के राज्य के लिए भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या| हे जनादर्न !धृतराष्ट के पुत्रों को मरकर हमारा क्या भला होगा ? इन आतताइयों का बध करने से पाप ही होगा, इसलिए हमें अपने भाई धृतराष्ट के पुत्रों को मारना अनुचित है| हे माधव! स्वजनों को मारकर क्या हम सुखी हो सकते हैं| ये सब लोभ के वशीभूत हैं और कुल के नाश करने तथा मित्र द्रोह करने में पाप को नहीं देखते| कुल नाश के दोष को जानते हुए भी हमको इस पातक से क्योँ नहीं दूर रहना चाहिए? कुल का नाश होने से कुल के प्राचीन धर्मनष्ट हो जाते है, फिर धर्म नाश होने से कुल में पाप बढ़ता है| हे कृष्ण! पाप से कुल की स्त्रियां व्यभिचारिणी हो जाती हैं जिनमें वर्णशंकर संतान उत्पन्न होती है| वह वर्णशंकर, जिन पुरुषों ने कुल को नष्ट किया है उनको तथा उस कुल को नरक में पहुँचते हैं क्योँकि श्राद तर्पण आदि बंद हो जाते है| वर्णशंकर बनाने वाले दोषों से कुलवधुओं की जाति धर्म और कुल धर्म निरंतर नाश होते है हे जनादर्न! मैं ने बराबर सुना है की कुल धर्म नष्ट होने से निश्चय नर्कवास करना होता है| हाय! हम बड़ा पातक करने को तैयार है जो राज्य सुख के लोभ से स्वजनों को मारने की कोशिश कर रहे है शास्त्रों को धारण किए हुए धृतराष्ट पुत्र यदि मुझ शास्त्र रहित और उपाय ही न को रणभूमि में बांधकर डाले तो मेरा बहुत कल्याण हो| संजय ने कहा, हे राजन! यह कहकर अत्यंत दुखित होकर अर्जुन ने उसी समय धनुष वाण फेंके दिया और रथ को पिछले भाग में जा बैठा| 

    || इति श्री भगवत गीता ज्ञान || 

    प्रथम अध्याय का माहात्म्य 

    एक समय पार्वती जी ने पूछा हे महादेव जी ! किस ज्ञान के बल से आपको संसार के लोग शिव कह कर पूजते है| मृगशाला औढ़े अंगों में शमशानों को विभूत लगाए गले में सर्प और मुंडो की माला पहिन रहे हो, इनमें तो कोई पवित्र  कर्म नहीं फिर आप किस ज्ञान से पवित्र हो? वह आप कृपा करके कहिये| श्री महादेव जी बोले हे प्रिये सुनो गीता के ज्ञान को ह्रदय में धारण करने से मैं पवित्र हूँ और उस ज्ञान से मुझे बाहर के कर्म व्यापते नहीं| तब पार्वती जी ने कहा हे भगवान! जिस गीता ज्ञान की आप ऐसी स्तुति करते है उसके श्रवण करने से कोई कृतार्थ भी हुआ है? तब महादेवजी ने कहा ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए और आगे भी होंगे| मैं तुझसे एक पुरातन कथा कहता हूँ तू श्रवण कर| एक समय पाताल लोक में शेषनाग की शैय्या पर श्री नारायण जी नैन मूंदकर अपने आनंद में मग्न थे|  उस समय भगवान के चरण दबती हुई श्री लक्ष्मीजी ने पूछा हे प्रभो! निद्रा और आलस्य उन पुरुषों को व्याप्ता है जो जिव तामसी हे फिर आप तो तीनों गुणों से अतीत हो श्री नारायणजी प्रभु वासुदेव जी हो, आप जो नेत्र मूंद रहे हो यह मुझको बड़ा आश्चर्य है| श्री नारायणजी बोले हे लक्ष्मी! मुझको निद्रा आलस्य नहीं व्याप्ता| एक शब्द रूप जो भगवतगीता है उसमें जो ज्ञान उसके आनंद मैं मग्न रहता हूँ, जैसे चौबीस अवतार मेरे आकर रूप है तैसे यह गीता शब्द रूप अवतार है इस गीता में यह अंग हैं| पांच अध्याय मेरी मुख है, पांच अध्याय मेरी भुजा है, पांच अध्याय मेरा ह्रदय और मन है सोलहवां अध्याय मेरा उदर है, सत्रहवां अध्याय मेरी जंघा हैं, अठारहवाँ अध्याय मेरे चरण है| सब गीता के जो श्लोक हाँ सो मेरी नाड़ियाँ है  गीता के अक्षर हैं सो मेरे रोम हैं. ऐसा जो मेरा शब्द रूप गीता ज्ञान है जिसके अर्थ मैं हृदय में विचरता हूँ और बहुत आनंद को प्राप्त होता हूँ| श्री लक्ष्मी जी बोली, हे श्री नारायणजी ! जब गीता का इतना ज्ञान है तो उसको सुनकर कोई जीव कृतार्थ भी हुआ है सो मुझसे कहो तब श्री नारायणजी ने कहा हे लक्ष्मी! गीता ज्ञान को सुनकर बहुत से जीव कृतार्थ हुए है सो तू श्रवण कर| शूद्र वर्ण एक प्राणी था| जो चाण्डालों के कर्म करता था और तेल लवण का व्यापार करता था उसने बकरी पाली| एक दिन वह बकरी चराने को बाहर वृक्षों के पत्ते तोड़ने लगा वहां सर्प ने उसे डस लिया तत्काल ही उसके प्राण निकल गए| मरकर उसने बहुत नरक भोगे फिर बैल का जन्म पाया जब बैल का जन्म पाया तो उस बैल को भिक्षुक ने मोल लिया| वह भिक्षुक उस पर चढ़ कर सारा दिन मांगता फिरे, जो कुछ भिक्षा मांगकर लावे वह अपने कुटुंब के साथ मिलकर खावे| वह बैल भारी रात द्वार पर बंधा रहे| उसके खाने-पीने की भी खबर न लेवे कुछ थोड़ा-सा भूसा उसके आगे डाल देवे| जब दिन चढ़े फिर बैल पर चढ़कर मांगता फिरे कई दिन गुजरे तो वह बैल भूख का मारा गिर पड़ा उसके प्राण छूटे नहीं| नगर के लोग देखा करे कोई तीर्थ का फल दे, कोइ व्रत का फल दे, पर उस बैल के प्राण छूटे नहीं| 


    एक दिन गणिका आई उसने मनुष्यों से पूछा यह भीड़ कैसी है तो उन्होंने कहा इसके प्राण जाते नहीं अनेक पुण्यो का फल दे रहे है तो भी इसकी मुक्ति नहीं होती जब गणिका ने कहा मैंने जो कर्म किया है जिसका फल मैं इस बैल को निमित दिया| इतना कहते ही बैल की मुक्ति हुई| तब उस बैल ने एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया| पिता ने इसका नाम सुशर्मा रखा जब बड़ा हुआ पिता ने इसको विद्यार्थी किया, तब इसको पिछले जन्म की सुध रही थी, यह अति सुन्दर हुआ इस ने एक दिन मन में विचार किया जिस गणिका ने मुझको बैले की योनि से छुड़ाया था उसका दर्शन करूँ| विप्र चलता-चलता गणिका के घर गया और कहा तू मुझे पहचाना है, गणिका कहा मैं नहीं पहचानती हूँ तू कौन है ? मेरी तेरी क्या पहचान है ? तू विप्र मैं वैश्या| तब विप्र ने कहा मैं वही बैल हूँ जिसको तुमने अपना पुण्य दिया था| तब मैं बैल की योनि से छूटा था अब मैंने विप्र के घर जन्म लिया है| तू अपना वह पुण्य बता | गणिका ने कहा मैंने अपने जाने कोई पुण्य नहीं किया पर मेरे घर का तोता है वह कुछ सवेरे पढ़ता है, मैं उसके वाक्य सुनती हूँ| उस पुण्य का फल मैंने तेरे निमित दिया था| तब विप्र ने तोते से पूछा की तू सवेरे क्या पढ़ता है? तोते ने कहा में पिछले जन्म में विप्र का पुत्र था, पिता ने मुझे गीता के पहले अध्याय का पाठ सिखाया था, एक दिन मैंने कहा मुझको गुरु ने क्या पढ़ाया है? तब गुरूजी ने मुझे श्राप दिया की तू सुआ होजा तब मैं सुआ हुआ एक दिन फन्दक मुझे पकड़ ले गया एक विप्र ने मुझे मोल लिया वह विप्र भी अपने पुत्र को गीता का पाठ सिखाता था तक मैंने भी वह पाठ सीख लिया| एक दिन उस विप्र के घर चोर आ गए उनको धन तो प्राप्त न हुआ मेरा पिंजरा उठा ले गए, उन चोरों को यह गणिका मित्र थी| मुझे इसके पास ले आये सो मैं नत्य श्री गीता जी के पहले अध्याय का पाठ करता हूँ यह सुनती है पर इस गणिका की समझ में नहीं आता जो में पढ़ता हूँ वहां पुण्य तेरे निमित दिया था सो श्री गीताजी के पहले अध्याय के पाठ का फल है| तब विप्र ने कहा, हे तोते तू भी विप्र है, मेरे आशीर्वाद से तेरा कल्याण हो | सो हे लक्ष्मी जी इतना कहने से तोते की मुक्ति भी गणिका ने भी भले कर्म ग्रहण किया नित्य - प्रति स्नान कर और गीता के प्रथम अध्याय का पाठ करे | इसके उसकी मुक्ति हुई| श्री नारायण ने कहा हे लक्ष्मी जी! जो कोई अनजाने से भी गीता का पाठ करे या श्रवण करे उसका को भी मुक्ति मिलेगी| 

    || भगवत गीता अध्याय -1 समाप्तम || 

















    10 टिप्‍पणियां:

    1. संपूर्ण भगवद् गीता पढ़ने के लिए डाउनलोड कीजिये

      https://play.google.com/store/apps/details?id=com.infohub.bhagavadgitainhindi

      जवाब देंहटाएं
    2. Bhagavad Gita now read in hindi with simple language to understand by every person easily.

      जवाब देंहटाएं
    3. Read the Complete Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi, Shrimad Bhagwat Geeta, Hindi Bhagwat Geeta.Gita in Hindi online, Read Gita online hindi

      जवाब देंहटाएं
    4. https://bhagavadgitapdf.com/bhagavad-gita-chapter-1-in-hindi-pdf/

      जवाब देंहटाएं
    5. अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।

      पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥

      जवाब देंहटाएं

    '; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad