Header Ads

  • Breaking News

     गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana :- आठवाँ अध्याय (Eighth Chapter)

    गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana :- आठवाँ अध्याय (Eighth Chapter)

    संक्षिप्त गरुड़ पुराण – आठवाँ अध्याय (succinct Garuda Purana - Eighth Chapter)


    गरुड़ जी ने कहा – हे तार्क्ष्य ;- मनुष्यों के हित की दृष्टि से आपने बड़ी उत्तम बात पूछी है। धार्मिक मनुष्य के लिए करने योग्य जो कृत्य हैं, वह सब कुछ मैं तुम्हें कहता हूँ। पुण्यात्मा व्यक्ति वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर अपने शरीर को व्याधिग्रस्त तथा ग्रहों की प्रतिकूलता को देखकर और प्राण वायु के नाद न सुनाई पड़ने पर अपने मरण का समय जानकर निर्भय हो जाए और आलस्य का परित्याग कर जाने-अनजाने किये गये पापों के विनाश के लिए प्रायश्चित का आचरण करे।

    जब आतुरकाल उपस्थित हो जाए तो स्नान करके शालग्राम स्वरुप भगवान विष्णु की पूजा कराए। गन्ध, पुष्प, कुंकुम, तुलसीदल, धूप, दीप तथा बहुत से मोदक आदि नैवेद्यों को समर्पित करके भगवान की अर्चा करे और विप्रों को दक्षिणा देकर नैवेद्य का ही भोजन कराएँ तथा अष्टाक्षर (ऊँ नमो नारायणाय) अथवा द्वादशाक्षर (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्र का जप करें। भगवान विष्णु और शिव के नाम का स्मरण करें और सुनें, भगवान का नाम कानों से सुनाई पड़ने पर वह मनुष्य के पाप को नष्ट करता है। रोगी के समीप आकर बान्धवों को शोक नहीं करना चाहिए। प्रत्युत मेरे पवित्र नाम का बार-बार स्मरण करना चाहिए।


    विद्वान व्यक्ति को, मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि (भगवान के ये दस अवतार हैं) – इन दस नामों का सदा स्मरण कीर्तन करना चाहिए। जो व्यक्ति रोगी के समीप उपर्युक्त नामों का कीर्तन करते हैं, वे ही उसके सच्चे बान्धव कहे गये हैं। “कृष्ण” यह मंगलमय नाम जिसकी वाणी से उच्चरित होता है, उसके करोड़ों महापातक तत्काल भस्म हो जाते हैं।


    मरणासन्न अवस्था में अपने पुत्र के बहाने से “नारायण” नाम लेकर अजामिल भी भगद्धाम को प्राप्त हो गया तो फिर जो श्रद्धापूर्वक भगवान के नाम का उच्चारण करने वाले हैं, उनके विषय में क्या कहना !! दूषित चित्तवृत्ति वाले व्यक्ति के द्वारा भी स्मरण किये जाने पर भगवान उसके समस्त पापों को नष्ट कर देते हैं, जैसे अनिच्छापूर्वक भी स्पर्श करने पर अग्नि जलाता ही है।

    हे द्विज ;- वासना के सहित पापों का समूल विनाश करने की जितनी शक्ति भगवान नाम में हैं, पातकी मनुष्य उतना पाप करने में समर्थ ही नहीं है।


    यमदेव अपने किंकरों से कहते हैं – हे दूतों ;- हमारे पास नास्तिकजनों को ले आया करो। भगवान के नाम का स्मरण करने वाले मनुष्यों को मेरे पास मत लाया करो क्योंकि मैं स्वयं अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ, जानकीनायक रामचन्द्र का भजन करता हूँ।

    हे दूतों ;- जो व्यक्ति हे कमलनयन, हे वासुदेव, हे विष्णु, हे धरणीधर, हे अच्युत, हे शंखचक्रपाणि ! आप मेरे शरणदाता हो – ऎसा कहते हैं, उन निष्पाप व्यक्तियों को तुम दूर से ही छोड़ देना।

    हे दूतों ;- जो निष्किंचन और रसज्ञ परमहंसों के द्वारा निरन्तर आस्वादित भगवान मुकुन्द के पादारविन्द-मकरन्द-रस से विमुख हैं अर्थात भगवद भक्ति से विमुख हैं और नरक के मूल गृहस्थी के प्रपंच में तृष्णा से बद्ध हैं, ऎसे असत्पुरुषों को मेरे पास लाया करो।

    जिनकी जिह्वा भगवान के गुण और नाम का कीर्तन नहीं करती, चित्त भगवान के चरणाविन्द का स्मरण नहीं करता, सिर एक बार भी भगवान को प्रणाम नहीं करता, ऎसे विष्णु के आराधना-उपासना आदि कृत्यों से रहित असत्पुरुषों को मेरे पास ले आओ। इसलिए हे पक्षीन्द्र ;- जगत में मंगल – स्वरूप भगवान विष्णु का कीर्तन ही एकमात्र महान पापों के आत्यन्तिक और ऎकान्तिक निवृत्ति का प्रायश्चित है – ऎसा जानो।


    नारायण से पराड्मुख रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा किये गये प्रायश्चित्ताचरण भी दुर्बुद्धि प्राणि को उसी प्रकार पवित्र नहीं कर सकते, जैसे मदिरा से भरे घट को गंगाजी – सदृश नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं। भगवान कृष्ण के नाम स्मरण से पाप नष्ट हो जाने के कारण जीव नरक को नहीं देखते और स्वप्न में भी कभी यम तथा यमदूतों को नहीं देखते।


    जो व्यक्ति अन्तकाल में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के पीछे चलते हैं, ऎसी गाय को ब्राह्मणों को दान देता है, वह माँस, हड्डी और रक्त से परिपूर्ण वैतरणी नडी में गिरता अथवा जो मृत्यु के समय में ‘नन्दनन्दन’ इस प्रकार की वाणी का उच्चारण करता है, शरीर धारण नहीं करता अर्थात मुक्त हो जाता है। अत: पापों के समूह को नष्ट करने वाले महाविष्णु के नाम का स्मरण करना चाहिए अथवा गीत या विष्णुसहस्त्रनाम का पठन अथवा श्रवण करना चाहिए। एकादशी का व्रत, गीता, गंगाजल, तुलसीदल, भगवान विष्णु का चरणामृत और नाम – ये मरणकाल में मुक्ति देने वाले हैं। इसके बाद घृत और सुवर्ण सहित अन्नदान का संकल्प करें। श्रोत्रिय द्विज (वेदपाठी ब्राह्मण) को सवत्सा गौ का दान करें।

    हे तार्क्ष्य ;- जो मनुष्य अन्तकाल में थोड़ा बहुत दान देता है और पुत्र उसका अनुमोदन करता है, वह दान अक्षय होता है।


    सत्पुत्र को चाहिए कि अन्तकाल में सभी प्रकार का दान दिलाए, लोक में धर्मज्ञ पुरुष इसीलिए पुत्र के लिए प्रार्थना करते हैं। भूमि पर स्थित, आधी आँखे मूँदे हुए पिता को देखकर पुत्रों को उनके द्वारा पूर्व संचित धन के विषय में तृष्णा नहीं करनी चाहिए। सत्पुत्र के द्वारा दिये गये दान से जब तक उसका पिता जीवित हो तब तक और फिर मृत्यु के अनन्तर आतिवाहिक शरीर से भी परलोक के मर्ग में वह दु:ख नहीं प्राप्त करता।

    आतुरकाल और ग्रहणकाल – इन दोनों कालों में दिये गये दान का विशेष महत्व है, इसलिए तिल आदि अष्ट दान अवश्य देने चाहिए। तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य (धान, जौ, गेहूँ, उड़द, काकुन या कंगुनी और चना – ये सप्तधान्य कहे जाते हैं), भूमि और गाय – इनमें से एक-एक का दान भी पवित्र करने वाला है। यह अष्ट महादान महापातकों का नाश करने वाला है। अत: अन्तकाल में इसे देना चाहिए। इन दानों का जो उत्तम फल है उसे सुनो – तीन प्रकार के पवित्र तिल मेरे पसीने से उत्पन्न हुए हैं। असुर, दानव और दैत्य तिल दान से तृप्त होते हैं। श्वेत, कृष्ण तथा कपिल (भूरे) वर्ण के तिल का दान वाणी, मन और शरीर के द्वारा किये गये त्रिविध पापों को नष्ट कर देता है।


    लोहे का दान भूमि में हाथ रखकर देना चाहिए। ऎसा करने से वह जीव यम सीमा को नहीं प्राप्त होता और यम मार्ग में नहीं जाता। पाप-कर्म करने वाले व्यक्तियों का निग्रह करने के लिए यम के हाथ में कुल्हाड़ी, मूसल, दण्ड, तलवार तथा छुरी – शस्त्र के रुप में रहते हैं। यमराज के आयुधों को संतुष्ट करने के लिए यह लोहे का दान कहा गया है इसलिए यमलोक में सुख देने वाले लोहदान को करना चाहिए।


    उरण,  श्यामसूत्र, शण्डामर्क, उदुम्बर, शेषम्बल नामक यम के महादूत लोहदान से सुख प्रदान करने वाले होते हैं।

    हे तार्क्ष्य ;- परम गोपनीय और दानों में उत्तम दान को सुनो, जिसके देने से भूलोक, भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और स्वर्गलोक के निवासी अर्थात मनुष्य, भूत-प्रेत तथा देवगण संतुष्ट होते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, ऋषिगण तथा धर्मराज के सभासद – स्वर्णदान से संतुष्ट होकर वर प्रदान करने वाले होते हैं। इसलिए प्रेत के उद्धार के लिए स्वर्णदान करना चाहिए।

    हे तात ;- स्वर्ण का दान देने से जीव यमलोक नहीं जाता, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

    बहुत काल तक वह सत्यलोक में निवास करता है, तदनन्तर इस लोक में रूपवान, धार्मिक, वाक्पटु, श्रीमान और अतुल पराक्रमी राजा होता है। कपास का दान देने से यमदूतों से भय नहीं होता, लवण का दान से यम से भय नहीं होता। लोहा, नमक, कपास, तुल और स्वर्ण के दान से यमपुर के निवासी चित्रगुप्त आदि संतुष्ट होते हैं। सप्तधान्य प्रदान करने से धर्मराज और यमपुर के तीनों द्वारों पर रहने वाले अन्य द्वारपाल भी प्रसन्न हो जाते हैं।


    धान, जौ, गेहूँ, मूँग, उड़द, काकुन या कँगुनी और सातवाँ चना – ये सप्तधान्य कहे गये हैं। जो व्यक्ति गोचर्ममात्र (सो गायें और एक बैल जितनी भूमि पर स्वतंत्र रूप से रह सकें, विचरण कर सकें, उतनी विस्तार वाली भूमि गोचर्म कहलाती है। इसका दान समस्त पापों का नाश करने वाला है) भूमि विधानपूर्वक सत्पात्र को देता है, वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है, ऎसा मुनीश्वरों ने देखा है। राज्य में किया हुआ अर्थात राज्यसंचालन में राजा से होने वाला महापाप न व्रतों से, न तीर्थ सेवन से और न अन्य किसी दान से नष्ट होता है अपितु वह तो केवल भूमि दान से ही विलीन होता है। जो व्यक्ति ब्राह्मण को धान्यपूर्ण पृथिवी का दान करता है, वह देवताओं और असुरों से पूजित होकर इन्द्रलोक में जाता है।

    हे गरुड़ ;-  अन्य दानों का फल अत्यल्प होता है किंतु पृथ्वी दान का पुण्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। भूमि का स्वामी होकर भी जो ब्राह्मण को भूमि नहीं देता वह जन्मान्तर में किसी ग्राम में एक कुटिया तक भी नहीं प्राप्त करता और जन्म-जन्मान्तर में अर्थात प्रत्येक जन्म में दरिद्र होता है। भूमि का स्वामी होने के अभिमान में जो भूमि का दान नहीं करता, वह तब तक नरक में निवास करता है, जब तक शेष नाग पृथ्वी को धारण करते हैं। इसलिए भूमि के स्वामी को भूमि दान करना ही चाहिए। अन्य व्यक्तियों के लिए भूमि दान के स्थान पर मैंने गोदान का विधान किया है। इसके बाद अन्तधेनु का दान करना चाहिए और रुद्रधेनु देनी चाहिए। तदनन्तर ऋणधेनु देकर मोक्षधेनु का दान करना चाहिए।

    हे खग ;- विशेष विधानपूर्वक वैतरणीधेनु का दान करना चाहिए। दान में दी गई गौएँ मनुष्य को त्रिविध पापों से मुक्त करती हैं।

    बाल्यावस्था में, कुमारावस्था में, युवावस्था में, वृद्धावस्था में अथवा दूसरे जन्म में, रात में, प्रात:काल, मध्याह्न, अपराह्ण और दोनों संध्या कालों में शरीर, मन और वाणी से जो पाप किये गये हैं, वे सभी पाप तपस्या और सदाचार से युक्त वेदविद ब्राह्मणों को उपस्करयुक्त (दान सामग्री सहित) सवत्सा और दूध देने वाली कपिला गौ के एक बार दान देने से नष्ट हो जाते हैं। दान में दी गई वह गौ अन्तकाल में गोदान करने वाले व्यक्ति का संचित पापों से उद्धार कर देती है।


    स्वस्थचित्तावस्था में दी गई एक गौ, आतुरावस्था में दी गई सौ गाय और मृत्युकाल में चित्तविवर्जित व्यक्ति के द्वारा दी गई एक हजार गाय तथा मरणोत्तर काल में दी गई विधिपूर्वक एक लाख गाय के दान का फल बराबर ही होता है। (यहाँ स्वस्थावस्था में गोदान करने का विशेष महत्व बतलाया गया है) तीर्थ में सत्पात्र को दी गई एक गाय का दान एक लक्ष गोदान के तुल्य होता है।

    सत्पात्र में दिया गया दान लक्षगुना होता है। उस दान से दाता को अनन्त फल प्राप्त होता है और दान लेने वाले पात्र को प्रतिग्रह दान लेने का दोष नहीं लगता। स्वाध्याय और होम करने वाला तथा दूसरे के द्वारा पकाए गये अन्न को न खाने वाला अर्थात स्वयं पाकी ब्राह्मण रत्नपूर्ण पृथ्वी का दान लेकर भी प्रतिग्रह दोष से लिप्त नहीं होता। विष और शीत को नष्ट करने वाले मन्त्र और आग भी क्या दोष के भागी होते हैं? अपात्र को दी गई वह गाय दाता को नरक में ले जाती है और अपात्र प्रतिग्रहीता को एक सौ एक पीढ़ी के पुरुषों के सहित नरक में गिराती है। इसलिए अपने कल्याण की इच्छा करने वाले विद्वान व्यक्ति को अपात्र को दान नहीं देना चाहिए।


    एक गाय एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिए। बहुत ब्राह्मणों को एक गाय कदापि नहीं देनी चाहिए। वह गौ यदि बेची या बाँटी गई तो सात पीढ़ी तक के पुरुषों को जला देती है। हे खगेश्वर ! मैंने तुमसे पहले वैतरणी नदी के विषय में कहा था, उसे पार करने के उपायभूत गोदान के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ।


    काले अथवा लाल रंग की गाय को सोने के सींग, चाँदी के खुर और काँसे के पात्र की दोहनी के सहित दो काले रंग के वस्त्रों से आच्छादित करें। उसके कण्ठ में घण्टा बाँधे तब कपास के ऊपर वस्त्र सहित ताम्रपात्र को स्थापित करके वहाँ लोहदण्ड सहित सोने की यम मूर्त्ति भी स्थापित करें और काँसे के पात्र में घृत रखकर यह सब ताम्रपात्र के ऊपर रखें। ईख की नींव बनाकर उसे रेशमी सूत्र से बाँधकर, भूमि पर गढ्ढा खोदे एवं उसमें जल भरकर वह ईख की नाव उसमें डाले।


    उसके समीप सूर्य की देह से उत्पन्न हुई धेनु को खड़ी करके शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार उसके दान का संकल्प करें। ब्राह्मणों को अलंकार और वस्त्र का दान दें तथा गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि से विधानपूर्वक गाय की पूजा करें। गाय की पूँछ को पकड़कर ईख की नाव पर पैर रखकर ब्राह्मण को आगे करके इस मन्त्र को पढ़े –


    ‘हे जगन्नाथ ! हे शरणागतवत्सल ! भवसागर में डूबे हुए शोक-संताप की लहरों से दु:ख प्राप्त करते हुए जनों के आप ही रक्षक हैं। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! विष्णुरूप ! भूमिदेव ! आप मेरा उद्धार कीजिए। मैंने दक्षिणा के सहित यह वैतरणी-रूपिणी गाय आपको दी है, आपको नमस्कार है। मैं महाभयावह यम मार्ग में सौ योजन विस्तार वाली उस वैतरणी नदी को पार करने की इच्छा से आपको इस वैतरणी गाय का दान देता हूँ। आपको नमस्कार है।’


    हे वैतरणी धेनु ! हे देवेशि ! यमद्वार के महामार्ग में वैतरणी नदी के पार कराने के लिए आप मेरी प्रतीक्षा करना, आपको नमस्कार है। मेरे आगे भी गौएँ हो, मेरे पीछे भी गौएँ हों, मेरे हृदय में भी गौएँ हों और मैं गौओं के मध्य में निवास करुँ। जो लक्ष्मी सभी प्राणियों में प्रतिष्ठित हैं तथा जो देवता में प्रतिष्ठित हैं वे ही धेनुरूपा लक्ष्मी देवी मेरे पाप को नष्ट करें। इस प्रकार मन्त्रों से भली-भाँति प्रार्थना करके हाथ जोड़कर गाय और यम की प्रदक्षिणा कर के सब कुछ ब्राह्मण को प्रदान करें।

    हे खग ;- इस विधान से जो वैतरणी धेनु का दान करता है, वह धर्म मार्ग से धर्मराज की सभा में जाता है। शरीर की स्वस्थावस्था में ही वैतरणी विषयक व्रत का आचरण कर लेना चाहिए और वैतरणी पार करने की इच्छा से विद्वान को वैतरणी गाय का दान करना चाहिए।

    हे खग ;- वैतरणी गाय का दान करने से महामार्ग में वह नदी नहीं आती इसलिए सर्वदा पुण्यकाल में गोदान करना चाहिए। गंगा आदि सभी तीर्थों में, ब्राह्मणों के निवास स्थानों में, चन्द्र और सूर्यग्रहण काल में, संक्रान्ति में, अमावस्या तिथि में, उत्तरायण और दक्षिणायन (कर्क और मकर संक्रान्तियों) में, विषुव ( अर्थात मेष तथा तुला की संक्रान्ति में), व्यतीपात योग में, युगादि तिथियों में तथा अन्यान्य पुण्यकालों में उत्तम गोदान देना चाहिए।


    जब कभी भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाए और जब भी दान के लिए सुपात्र प्राप्त हो जाए, वही समय दान के लिए पुण्यकाल है, क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है। शरीर नश्वर है, सम्पत्ति सदा रहने वाली नहीं है और मृत्यु प्रतिक्षण निकट आती जा रही है, इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए। अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार किया गया दान अनन्त फलवाला होता है। इसलिए अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को विद्वान ब्राह्मण को दान देना चाहिए।


    अपने हाथ से अपने कल्याण के लिए दिया गया अल्प वित्त वाला वह दान भी अक्षय होता है और उसका फल भी तत्काल प्राप्त होता है। दान रूपी पाथेय को लेकर जीव परलोक के महामार्ग में सुखपूर्वक जाता है अन्यथा दानरुपी पाथेय रहित प्राणि को यममार्ग में क्लेश प्राप्त होता है। पृथ्वी पर मनुष्यों के द्वारा जो-जो दान दिये जाते हैं, यमलोक के मार्ग वे सभी आगे-आगे उपस्थित हो जाते हैं। महान पुण्य के प्रभाव से मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। उस मनुष्य योनि को प्राप्त कर जो व्यक्ति धर्माचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है। धर्म को न जानने के कारण व्यक्ति संसार में दु:खपूर्वक जन्म लेता है और मरता है। केवल धर्म के सेवन में ही मनुष्य जीवन की सफलता है।


    धन, पुत्र, पत्नी आदि बान्धव और यह शरीर भी सब कुछ अनित्य हैै इसलिए धर्माचरण करना चाहिए। जब तक मनुष्य जीता है तभी तक बन्धु-बान्धव और पिता आदि का संबंध रहता है, मरने के अनन्तर क्षणमात्र में सम्पूर्ण स्नेह संबंध निवृत हो जाता है। जीवितावस्था में अपनी आत्मा ही अपना बन्धु है – ऎसा बार-बार विचार करना चाहिए। मरने के अनन्तर कौन उसके उद्देश्य से दान देगा? ऎसा जानकर अपने हाथ से ही सब कुछ दान देना चाहिए क्योंकि जीवन अनित्य है, बाद में अर्थात उसकी मृत्यु के पश्चात कोई भी उसके लिए दान नहीं देगा। मृत शरीर को काठ और ढेले के समान पृथ्वी पर छोड़कर बन्धु-बान्धव विमुख होकर लौट जाते हैं, केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता है। धन-सम्पत्ति घर में ही छूट जाती है, सभी बन्धु-बान्धव श्मशान में छूट जाते हैं किंतु प्राणी के द्वारा किया हुआ शुभाशुभ कर्म परलोक में उसके पीछे-पीछे जाता है।


    शरीर आग से जल जाता है किंतु किया हुआ कर्म साथ में रहता है। प्राणि जो कुछ पाप अथवा पुण्य करता है, उसका वह सर्वत्र भोग प्राप्त करता है। इस दु:खपूर्ण संसार सागर में कोई भी किसी का बन्धु नहीं है। प्राणी अपने कर्म संबंध से संसार में आता है और फल भोग से कर्म का क्षय होने पर पुन: चला जाता है अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।


    माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु और पत्नी आदि का परस्पर मिलन प्याऊ पर एकत्र हुए जन्तुओं के समान अथवा नदी में बहने वाले काष्ठ समूह के समान नितान्त चंचल अर्थात अस्थिर है। किसके पुत्र, किसके पौत्र, किसकी भार्या और किसका धन? संसार में कोई किसी का नहीं है। इसलिए अपने हाथ से स्वयं दान देना चाहिए। जब तक धन अपने अधीन है तब तक ब्राह्मण को दान कर दें क्योंकि धन दूसरे के अधीन हो जाने पर तो दान देने के लिए कहने का साहस भी नहीं होगा।

    पूर्व जन्म में किये हुए दान के फलस्वरुप यहाँ बहुत सारा धन प्राप्त हुआ है इसलिए ऎसा जानकर धर्म के लिए धन देना चाहिए। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, धर्म से काम की प्राप्ति होती है और धर्म से ही मोक्ष की भी प्राप्ति होती है इसलिए धर्माचरण करना चाहिए। धर्म श्रद्धा से धारण किया जाता है, बहुत सी धन राशि से नहीं। अकिंचन मुनिगण भी श्रद्धावान होकर स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।


    जो मनुष्य पत्र, पुष्प, फल अथवा जल मुझे भक्तिभाव से समर्पित करता है, उस संयतात्मा के द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये पदार्थों को मैं प्राप्त करता हूँ। इसलिए विधिविधानपूर्वक अवश्य ही दान देना चाहिए। थोड़ा हो या अधिक इसकी कोई गणना नहीं करनी चाहिए। जो पुत्र पृथ्वी पर पड़े हुए आतुर पिता के द्वारा दान दिलाता है, वह धर्मात्मा पुत्र देवताओं के लिए भी पूजनीय होता है। माता-पिता के निमित्त जो धन पुत्र के द्वारा सत्पात्र को समर्पित किया जाता है, उससे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र के साथ वह व्यक्ति स्वयं भी पवित्र हो जाता है। पिता के उद्देश्य से किये गये दान से हजार गुना, बहन के उद्देश्य से किये गये दान से दस हजार गुना और सहोदर भाई के निमित्त किए गये दान से अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है।


    दान देने वाला उपद्रवग्रस्त नहीं होता, उसे नरक यातना नहीं प्राप्त होती और मृत्युकाल में उसे यमदूतों से भी कोई भय नहीं होता।

    हे खग ;- यदि कोई व्यक्ति लोभ से आतुरकाल में दान नहीं देते वे कंजूस पापी प्राणी मरने के अनन्तर शोकगमन होते हैं। आतुरकाल में आतुर के उद्देश्य से जो पुत्र, पौत्र, सहोदर भाई, सगोत्री और सुहृज्जन दान नहीं देते, वे ब्रह्महत्यारे हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।


    ।। "इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में ‘आतुरदाननिरूपण’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ" ।।


    No comments

    Note: Only a member of this blog may post a comment.

    '; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad