Header Ads

  • Breaking News

     गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana (succinct) :- दसवाँ अध्याय (Tenth Chapter)

    गरुड़ पुराण (संक्षिप्त) Garuda Purana (succinct) :- दसवाँ अध्याय (Tenth Chapter)


    "मृत्यु के अनन्तर के कृत्य, शव आदि नाम वाले छ्: पिण्ड दानों का फल, दाह संस्कार की विधि, पंचक में दाह का निषेध, दाह के अनन्तर किये जाने वाले कृत्य, शिशु आदि की अन्त्येष्टि का विधान"

    गरुड़ जी बोले – हे विभो :- अब आप पुण्यात्मा पुरुषों के शरीर के दाह संस्कार का विधान बतलाइए और यदि पत्नी सती हो तो उसकी महिमा का भी वर्णन कीजिए।


    श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य :- जिन और्ध्वदैहिक  कृत्यों को करने से पुत्र और पौत्र, पितृ-ऋण से मुक्त हो जाते हैं, उसे बताता हूँ, सुनो। बहुत-से दान देने से क्या लाभ? माता-पिता की अन्त्येष्टि क्रिया भली-भाँति करें, उससे पुत्र को अग्निष्टोम याग के समान फल प्राप्त हो जाता है।


    माता-पिता की मृत्यु होने पर पुत्र को शोक का परित्याग करके सभी पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त बान्धवों के साथ मुण्डन कराना चाहिए। माता-पिता के मरने पर जिसने मुण्डन नहीं कराया, वह संसार सागर को तारने वाला पुत्र कैसे समझा जाए? अत: नख और काँख को छोड़कर मुण्डन कराना आवश्यक है। इसके बाद समस्त बान्धवों सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करें तब तुरंत जल ले आकर जल से शव को स्नान करावे और चन्दन अथवा गंगा जी की मिट्टी के लेप से तथा मालाओं से उसे विभूषित करें। उसके बाद नवीन वस्त्र से ढककर अपसव्य होकर नाम-गोत्र का उच्चारण करके संकल्पपूर्वक दक्षिणासहित पिण्डदान देना चाहिए। मृत्यु के स्थान पर “शव” नामक पिण्ड को मृत व्यक्ति के नाम-गोत्र से प्रदान करें। ऎसा करने से भूमि और भूमि के अधिष्ठाता देवता प्रसन्न होते हैं।

    इससके पश्चात द्वार देश पर “पान्थ” नामक पिण्ड मृतक के नाम-गोत्रादि का उच्चारण करके प्रदान करे। ऎसा करने से भूतादि कोटि में दुर्गतिग्रस्त प्रेत मृत प्राणी की सद्गति में विघ्न-बाधा नहीं कर सकते। इसके बाद पुत्र वधू आदि शव की प्रदक्षिणा करके उउसकी पूजा करें तब अन्य बान्धवों के साथ पुत्र को शव यात्रा के निमित्त कंधा देना चाहिए। अपने पिता को कंधे पर धारण करके जो पुत्र श्मशान को जाता है, वह पग-पग पर अश्वमेघ का फल प्राप्त करता है।


    पिता अपने कंधे पर अथवा अपनी पीठ पर बिठाकर पुत्र का सदा लालन-पालन करता है, उस ऋण से पुत्र तभी मुक्त होता है जब वह अपने मृत पिता को अपने कंधे पर ढोता है। इसके बाद आधे मार्ग में पहुँचकर भूमि का मार्जन और प्रोक्षण करके शव को विश्राम कराए और उसे स्नान कराकर भूत संज्ञक पितर को गोत्र नामादि के द्वारा ‘भूत’ नामक पिण्ड प्रदान करें। इस पिण्डदान से अन्य दिशाओं में स्थित पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि उस हवन करने योग्य देह की हवनीयता अयोग्यता नहीं उत्पन्न कर सकते।


    उसके बाद श्मशान में ले जाकर उत्तराभिमुख स्थापित करें। वहाँ देह के दाह के लिए यथाविधि भूमि का संशोधन करें। भूमि का सम्मार्जन और लेपन करके उल्लेखन करें अर्थात दर्भमूल से तीन रेखाएँ खींचें और उल्लेखन क्रमानुसार ही उन रेखाओं से उभरी हुई मिट्टी को उठाकर ईशान दिशा में फेंककर उस वेदिका को जल से प्रोक्षित करके उसमें विधि-विधानपूर्वक अग्नि स्थापित करें। पुष्प और अक्षत आदि से क्रव्यादसंज्ञक अग्निदेव की पूजा करें और “लोमभ्य: (स्वाहा)” इत्यादि अनुवाक से यथाविधि होम करना चाहिए। (तब उस क्रव्याद – मृतक का मांस भक्षण करने वाली – अग्नि की इस प्रकार प्रार्थना करें) तुम प्राणियों को धारण करने वाले, उनको उत्पन्न करने वाले तथा प्राणियों का पालन करने वाले हो, यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है, तुम इसे स्वर्ग ले जाओ। इस प्रकार क्रव्याद-संज्ञक अग्नि की प्रार्थना करके वहीं चंदन, तुलसी, पलाश और पीपल की लकड़ियों से चिता का निर्माण करें।

    हे खगेश्वर :- उस शव को चिता पर रख करके वहाँ दो पिण्ड प्रदान करें। प्रेत के नाम से एक पिण्ड चिता पर तथा दूसरा शव के हाथ में देना चाहिए। चिता में रखने के बाद से उस शव में प्रेतत्व आ जाता है। प्रेतकल्प को जानने वाले कतिपय विद्वज्जन चिता पर दिये जाने वाले पिण्ड को “साधक” नाम से संबोधित करते हैं। अत: चिता पर साधक नाम से तथा शव के हाथ पर “प्रेत” नाम से पिण्डदान करें। इस प्रकार पाँच पिण्ड प्रदान करने से शव में आहुति-योग्यता सम्पन्न होती है। अन्यथा श्मशान में स्थित पूर्वोक्त पिशाच, राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति-योग्यता के उपघातक होते हैं। प्रेत के लिए पाँच पिण्ड देकर हवन किये हुए उस क्रव्याद अग्नि को तिनकों पर रखकर यदि पंचक (धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये पाँच नक्षत्र पंचक कहलाते हैं और इन पंचकों के स्वामी ग्रह क्रमश: वसु, वरुण, अजचरण अथवा अजैकपात, अहिर्बुध्न्य और पूषा हैं) न हो तो पुत्र अग्नि प्रदान करे।


    पंचक में जिसका मरण होता है, उस मनुष्य को सद्गति नहीं प्राप्त होती। पंचक शान्ति किये बिना उसका दाह संस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा अन्य की मृत्यु हो जाती है। धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्ध से रेवती तक पाँच नक्षत्र पंचक संज्ञक है। इनमें मृत व्यक्ति दाह के योग्य नहीं होता औऔर उसका दाह करने से परिणाम शुभ नहीं होता। इन नक्षत्रों में जो मरता है, उसके घर में कोई हानि होती है, पुत्र और सगोत्रियों को भी कोई विघ्न होता है। अथवा इस पंचक में भी दाह विधि का आचरण करके मृत व्यक्ति का दाह-संस्कार हो सकता है।


    पंचक मरण-प्रयुक्त सभी दोषों की शान्ति के लिए उस दाह-विधि को कहूँगा।

    हे तार्क्ष्य :- कुश से निर्मित चार पुतलों को नक्षत्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शव के समीप में स्थापित करें तब उन पुतलों में प्रतप्त सुवर्ण रखना चाहिए और फिर नक्षत्रों के नाम-मन्त्रों से होम करना चाहिए। पुन: “प्रेता जयता नर इन्द्रो व: शर्म यच्छतु” (ऋग्वेद – 10।103।13, युज. 17।46) इस मन्त्र से उन नक्षत्र-मन्त्रों को सम्पुटित करके होम करना चाहिए।

    इसके बाद उन पुतलों के साथ शव का दाह करें, सपिण्ड श्राद्ध के दिन पुत्र यथाविधि पंचक-शान्ति का अनुष्ठान करें। पंचक दोष की शान्ति के लिए क्रमश: तिलपूर्ण पात्र, सोना, चाँदी, रत्न तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र का दान करना चाहिए। इस प्रकार पंचक-शान्ति विधान करके जो शव दाह करता है, उसे पंचकजन्य कोई विघ्न-बाधा नहीं होती और प्रेत भी सद्गति प्राप्त करता है। इस प्रकार पंचक में मृत व्यक्ति का दाह करना चाहिए और पंचक के बिना मरने पर केवल शव का दाह करना चाहिए। यदि मृत व्यक्ति की पत्नी सती हो रही हो तो उसके दाह के साथ ही शव का दाह करना चाहिए।


    अपने पति के प्रियसम्पादन में संलग्न पतिव्रता नारी यदि उसके साथ परलोकगमन करना चाहे (सती होना स्त्री की इच्छा पर निर्भर करता है, सती के नाम पर कोई जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए) तो पति की मृत्यु होने पर स्नान करे और अपने शरीर को कुंकुम, अंजन, सुन्दर वस्त्राभूषणादि से अलंकृत करे, ब्राह्मणों और बन्धु-बान्धवों को दान दे। गुरुजनों को प्रणाम करके तब घर से बाहर निकले। इसके बाद देवालय जाकर भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु को प्रणाम करे। वहाँ अपने आभूषणों को समर्पित करके वहाँ से श्रीफल लेकर लज्जा और मोह का परित्याग करके श्मशान भूमि में जाए तब वहाँ सूर्य को नमस्कार करके, चिता की परिक्रमा करके पुष्पशैय्या रूपी चिता पर चढ़े और अपने पति को गोद में लिटाए। तदनन्तर सखियों को श्रीफल देकर दाह के लिए आज्ञा प्रदान करे और शरीर दाह को गंगाजल में स्नान के समान मानकर अपना शरीर जलाए।

    गर्भिणी (pregnant) स्त्री को अपने पति के साथ अपना दाह नहीं करना चाहिए। प्रसव करके और उत्पन्न बालक का पोषण करने के अनन्तर उसे सती होना चाहिए। यदि स्त्री अपने मृत पति के शरीर को लेकर अपने शरीर का दाह करती है तो अग्नि उसके शरीर मात्र को जलाती है, उसकी आत्मा को कोई पीड़ा नहीं होती। धौंके जाते हुए स्वर्णादि धातुओं का मल जैसे अग्नि में जल जाता है, उसी प्रकार पति के साथ जलने वाली नारी अमृत के समान अग्नि में अपने पापों को जला देती है। जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथ के समय तपे हुए लोहपिण्डादि को लेने पर भी नहीं जलता, उसी प्रकार चिता पर पति के शरीर के साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती अर्थात उसे दाहप्रयुक्त कष्ट नहीं होता। प्रत्युत उसकी अन्तरात्मा मृत व्यक्ति की अन्तरात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है।


    पति की मृत्यु होने पर जब तक स्त्री उसके शरीर के साथ अपने शरीर को नहीं जला लेती, तब तक वह किसी प्रकार भी स्त्री शरीर प्राप्त करने से मुक्त नहीं होती। इसलिए सर्वप्रयत्नपूर्वक मन, वाणी और कर्म से जीवितावस्था में अपने पति की सदा सेवा करनी चाहिए और मरने पर उसका अनुगमन करना चाहिए। पति के मरने पर जो स्त्री अग्नि में आरोहण करती है, वह महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती के समान होकर स्वर्गलोक में सम्मानित होती है। वहाँ वह पतिपरायणा नारी अप्सरागणों के द्वारा स्तूयमान होकर चौदह इन्द्रों के राज्यकालपर्यन्त अर्थात एक कल्प तक अपने पति के साथ स्वर्गलोक में रमण करती है। जो सती अपने भर्ता का अनुगमन करती है, वह अपने मातृकुल, पितृकुल और पतिकुल – इन तीनों कुलों को पवित्र कर देती है।


    मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं, उतने काल तक वह नारी अपने पति के साथ स्वर्ग में आनन्द करती है। वह सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में अपने पति के साथ क्रीड़ा करती है और जब तक सूर्य और चन्द्र की स्थिति रहती है तब तक पतिलोक में निवास करती है। इस प्रकार दीर्घ आयु प्राप्त करके पवित्र कुल में पैदा होकर पतिरूप में वह पतिव्रता नारी उसी जन्मान्तरीय पति को पुन: प्राप्त करती है।

    जो स्त्री क्षणमात्र के लिए होने वाले दाह-दु:ख के कारण इस प्रकार के सुखों को छोड़ देती है, वह मूर्खा जन्मपर्यन्त विरहाग्नि में जलती रहती है। इसलिए पति को शिवस्वरूप जानकर उसके साथ अपने शरीर को जला देना चाहिए। शव के आधे या पूरे जल जाने पर उसके मस्तक को फोड़ना चाहिए। गृहस्थों के मस्तक को काष्ठ से और यतियों के मस्तक को श्रीफल से फोड़ देना चाहिए।


    पितृलोक की प्राप्ति के लिए उसके ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके उसका पुत्र निम्न मन्त्र से अग्नि में घी की आहुति दे – हे अग्निदेव ! तुम भगवान वासुदेव के द्वारा उत्पन्न किए गए हो। पुन: ततुम्हारे द्वारा इसकी तेजोमय दिव्य शरीर की उत्पत्ति हो। स्वर्गलोक में गमन करने के लिए इसका स्थूल शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो, एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ। इस प्रकार मन्त्रसहित तिलमिश्रित घी की आहुति देकर जोर से रोना चाहिए, उससे मृत प्राणी सुख प्राप्त करता है।


    दाह के अनन्तर स्त्रियों को स्नान करना चाहिए। तत्पश्चात पुत्रों को स्नान करना चाहिए। तदनन्तर मृत प्राणि के गोत्र-नाम का उच्चारण करके तिलांजलि देनी चाहिए फिर नीम के पत्तों को चबाकर मृतक के गुणों का गान करना चाहिए। आगे-आगे स्त्रियों को और पीछे पुरुषों को घर जाना चाहिए और घर में पुन: स्नान करके गोग्रास देना चाहिए। पत्तल में भोजन करना चाहिए और घर का अन्न नहीं खाना चाहिए। मृतक के स्थान को लीपकर वहाँ बारह दिन तक रात-दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना चाहिए।

    हे तार्क्ष्य :- शवदाह के दिन से लेकर तीन दिन तक सूर्यास्त होने पर श्मशान भूमि में अथवा चौराहे पर मिट्टी के पात्र में दूध तथा जल देना चाहिए।


    काठ की तीन लकड़ियों को दृढ़तापूर्वक सूत से बाँधकर अर्थात तिगोड़िया बनाकर उस पर दूध और जल से भरे हुए कच्चे मिट्टी के पात्र को रखकर यह मन्त्र पढ़े – हे प्रेत ! तुम श्मशान की आग से जले हुए हो, बान्धवों से परित्यक्त हो, यह जल और यह दूध तुम्हारे लिए है, इसमें स्नान करो और इसे पीओ (याज्ञवल्क्य स्मृति 3।17 की मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने कहा है कि प्रेत के लिए जल और दूध पृथक-पृथक पात्रों में रखना चाहिए और “प्रेत अत्र स्नाहि” कहकर जल तथा “पिब चेदम्” कहकर दूध रखना चाहिए)। साग्निक – जिन्होंने अग्न्याधान किया हो – को चौथे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए और निषिद्ध वार-तिथि का विचार करके निरग्नि को तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए।


    अस्थिसंचय के लिए श्मशान भूमि में जाकर स्नान करके पवित्र हो जाए। ऊन का सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके – श्मशानवासियों (भूतादि) के लिए पुत्र को “यमाय त्वा.” (यजु. 38।9) इस मन्त्र से माष (उड़द) की बलि देनी चाहिए और तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। हे खगेश्वर ! इसके बाद चितास्थान को दूध से सींचकर जल से सींचे। तदनन्तर अस्थिसंचय करे और उन अस्थियों को पलाश के पत्ते पर रखकर दूध और जल से धोएँ और पुन: मिट्टी के पात्र पर रखकर यथाविधि श्राद्ध – पिण्डदान – करें। त्रिकोण स्थण्डिल बनाकर उसे गोबर से लीपे। दक्षिणाभिमुख होकर स्थपिण्डल के तीनों कोनों पर तीन पिण्डदान करें। चिताभस्म को एकत्र करके उसके ऊपर तिपाई रखकर उस पर खुले मुखवाला जलपूर्ण घट स्थापित करें।

    इसके बाद चावल पकाकर उसमें दही और घी तथा मिष्ठान्न मिलाकर जल के सहित प्रेत को यथाविधि बलि प्रदान करें।

    हे खग :- फिर उत्तर दिशा में पंद्रह कदम जाएँ और वहाँ गढ्ढा बनाकर अस्थि पात्र को स्थापित करें। उसके ऊपर दाहजनित पीड़ा नष्ट करने वाला पिण्ड प्रदान करें और गढ्ढे से उस अस्थि पात्र को निकालकर उसे लेकर जलाशय को जाएँ। वहाँ दूध और जल से उन अस्थियों को बार-बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुम से विशेषरूप से लेपित करें फिर उन्हें एक दोने में रखकर हृदय और मस्तक में लगाकर उनकी परिक्रमा करें तथा उन्हें नमस्कार करके गंगा जी में विसर्जित करें। जिस मृत प्राणी की अस्थि दस दिन के अन्तर्गत गंगा में विसर्जित हो जाती है, उसका ब्रह्मलोक से कभी भी पुनरागमन नहीं होता। गंगाजल में मनुष्य की अस्थि जब तक रहती है उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में विराजमान रहता है।


    गंगा जल की लहरों को छूकर हवा जब मृतक का स्पर्श करती है तब उस मृतक के पातक तत्क्षण ही नष्ट हो जाते हैं। महाराज भगीरथ उग्र तप से गंगा देवी की आराधना करके अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए गंगा देवी को ब्रह्मलोक से भूलोक ले आए थे। जिनके जल ने भस्मीभूत राजा सगर के पुत्रों को स्वर्ग में पहुँचा दिया, उन गंगा जी का पवित्र यश तीनों लोकों में विख्यात है।


    जो मनुष्य अपनी पूर्वावस्था में पाप करके मर जाते हैं उनकी अस्थियों को गंगा में छोड़ने पर वे स्वर्गलोक चले जाते हैं। किसी महा अरण्य में सभी प्राणियों की हत्या करने वाला कोई व्याध सिंह के द्वारा मारा गया और जब वह नरक को जाने लगा तभी उसकी अस्थि गंगाजी में गिर पड़ी, जिससे वह दिव्य विमान पर चढ़कर देवलोक को चला गया। इसलिए सत्पुरुष को स्वत: ही अपने पिता की अस्थियों को गंगाजी में विसर्जित करना चाहिए। अस्थिसंचयन के अनन्तर दशगात्रविधि का अनुष्ठान करना चाहिए।

    यदि कोई व्यक्ति विदेश में या वन में अथवा चोरों के भय से मरा हो और उसका शव प्राप्त न हुआ हो तो जिस दिन उसके निधन का समाचार सुने, उस दिन कुश का पुत्तल बनाकर पूर्वविधि के अनुसार केवल उसी का दाह करे और उसकी भस्म को लेकर गंगा जल में विसर्जित करें। दशगात्रादि कर्म भी उसी दिन से आरम्भ करना चााहिए और सांवत्सरिक श्राद्ध में भी उसी दिन (सूचना प्राप्त होने वाले) को ग्रहण करना चाहिए।


    यदि गर्भ की पूर्णता हो जाने के अनन्तर नारी की म्रत्यु हो गई हो तो उसके पेट को चीरकर बालक को निकाल ले, यदि वह भी मर गया हो तो उसे भूमि में गाड़कर केवल मृत स्त्री का दाह करें। गंगा के किनारे मरे हुए बालक को गंगाजी में ही प्रवाहित कर दे और अन्य स्थान पर मरे सत्ताईस महीने तक के बालक को भूमि में गाड़ दें। इसके बाद की अवस्था वाले बालक का दाह संस्कार करे और उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करें तथा जलपूर्ण कुम्भ प्रदान करें तथा केवल बालकों को ही भोजन कराएँ।


    गर्भ के नष्ट होने पर उसकी कोई क्रिया नहीं की जाती पर शिशु के मरने पर उसके लिए दुग्धदान करना चाहिए। बालक – चूड़ाकरण से पूर्व या तीन वर्ष की अवस्था वाले – के मरने पर उसके लिए जलपूर्ण घट का दान करना चाहिए और खीर का भोजन कराना चाहिए। कुमार के मरने पर कुमार बालकों को भोजन कराना चाहिए और उपनीत पौगण्ड अवस्था के बच्चे के मरने पर उसी अवस्था के बालकों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।


    पाँच वर्ष की अवस्था से अधिक वाले बालक की मृत्यु होने पर, वह चाहे उपनीत (यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न) हो अथवा अनुपनीत (जिसका यज्ञोपवीत न हुआ हो) हो, पायस और गुड़ के दस पिण्ड क्रमश: प्रदान करने चाहिए। पौगण्ड अवस्था के बालक की मृत्यु होने पर वृषोत्सर्ग तथा महादान की विधि को छोड़कर एकादशाह तथा द्वादशाह की क्रिया का सम्पादन करना चाहिए। पिता के जीवित रहने पर पौगण्डावस्था में मृत बालक का सपिण्डन श्राद्ध नहीं होता। अत: बारहवें दिन उसका केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध करें।

    स्त्री और शूद्रों के लिए विवाह ही व्रतबन्ध-स्थानीय संस्कार कहा गया है। व्रत अर्थात उपनयन के पूर्व मरने वाले सभी वर्णों के मृतकों के लिए उनकी अवस्था के अनुकूल समान क्रिया होनी चाहिए। जिसने थोड़ा कर्म किया किया हो, थोड़े विषयों से जिसका संबंध रहा हो, कम अवस्था हो और स्वल्प देह वाला हो, ऎसे जीव के मरने पर उसकी क्रिया भी स्वल्प ही होनी चाहिए। किशोर अवस्था के और तरुण अवस्था के मनुष्य के मरने पर शय्यादान, वृषोत्सर्गादि, पददान, महादान और गोदान आदि क्रियाएँ करनी चाहिए। सभी प्रकार के सन्यासियों की मृत्यु होने पर उनके पुत्रों आदि के द्वारा न तो उनका दाह-संस्कार किया जाना चाहिए, न उन्हें तिलांजलि देनी चााहिए और न ही उनकी दशगात्रादि क्रिया ही करनी चाहिए क्योंकि दण्डग्रहण (सन्यास ग्रहण) कर लेने मात्र से नर ही नारायण स्वरूप हो जाता है। त्रिदण्ड (मन, वाणी और इन्द्रियों का संयम ही त्रिदण्ड है) ग्रहण करने से मृत्यु के अनन्तर उस जीव को प्रेतत्व प्राप्त नहीं होता।


    ज्ञानीजन तो अपने स्वरूप का अनुभव कर लेने के कारण सदा मुक्त ही होते हैं। इसलिए उनके उद्देश्य से दिये जाने वाले पिण्डों की भी उन्हें आकांक्षा नहीं होती। अत: उनके लिए पिण्डदान और उदकक्रिया नहीं करनी चाहिए, किंतु पितृभक्ति के कारण तीर्थश्राद्ध और गया श्राद्ध करने चाहिए।


    हे तार्क्ष्य :- हंस, परमहंस, कुटीचक और बहूदक – इन चारों प्रकार के सन्यासियों की मृत्यु होने पर उन्हें पृथ्वी में गाड़ देना चाहिए। गंगा आदि नदियों के उपलब्ध न रहने पर ही पृथ्वी में गाड़ने की विधि है, यदि वहाँ कोई  महानदी हो तो उन्हीं में उन्हें जलसमाधि दे देनी चाहिए।

    ।। "इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “दाहास्थिसंचयकर्मनिरुपण” नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ" ।।

    कोई टिप्पणी नहीं

    '; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad