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    पितृ पक्ष का महत्त्व और विधि

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    सनातन काल से ही हिन्दू धर्म के अनुसार लोगों में ऐसी भी मान्यता है कि यदि किसी भी मनुष्य का पूरे विधि विधान के साथ श्राद्ध और तर्पण न किया जाए तो ऐसी स्थिति में उसकी आत्मा को इस पृथ्वी लोक से मुक्ति नहीं मिलती है एवं वह बिना शरीर के ही इस संसार में ही विचारता रहता है और सदैव के लिए उस मनुष्य की आत्मा अतृप्त रह जाती है। इस लेख में हम आपको पितृपक्ष तर्पण एवं उसकी पूजा करने की विधि से आपको परिचित करवाएँगे।
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    हमारे देवता हमसे तभी प्रसन्न हो सकते हैं, जब हमारे पूर्वज हमसे संतुष्ट हो और हम पर प्रसन्न हों। हिन्दू ज्योतिष शास्त्र की भी मानें तो पितृ दोष को कुंडली के विभिन्न दोषों में से एक सर्वाधिक कष्टसाध्य एवं जटिल दोष माना जाता है। इसके दुष्प्रभाव तो कम करने का सबसे सीधा और सरल उपाय यही है कि हम अपने पितरों की आत्मा को संतुष्ट करें और उनको किसी भी तरह की अधूरी इच्छा नहीं रह जाए। उन्हे शांत करने की सबसे सरल विधि श्राद्ध ही है।

    आप इसे सही तरीके से पूरा करने के लिए किसी सुयोग्य पंडित की मदद भी ले सकते हैं। अतः इसी कारण पितरों की शांति एवं संतुष्टि के लिए लोग प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से लेकर आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि तक की अवधि के दौरान पितृ पक्ष श्राद्ध करते हैं। जहां बात श्राद्ध की पूजा में बैठने वाले यजमान अथवा कर्ता की आती है तो परंपरा के अनुरूप, श्राद्ध समर्पित करने का हक़ पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र जैसे रिश्तों के अलावा महिलाओं का भी होता है। अतः यदि कोई महिला चाहे तो वह अपने पितरों को श्राद्ध अर्पित कर सकती है।

    पितृपक्ष तर्पण की पूजा विधि के विषय में जान लेते हैं।

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    आप पीतल के एक थाल में जल, थोड़े काले तिल व दूध लें एंव उसके आगे दूसरा खाली पात्र रखें। तर्पण करते समय दोनों हाथ की अंजली बना लें एवं मृत प्राणी का नाम लेकर “तृप्यन्ताम” कहते हुए अंजली में भरे हुए जल को रखे हुए खाली पात्र में छोड़ दें। एक व्यक्ति के लिए कम से कम तीन अंजली तर्पण करना चाहिए। श्राद्ध की पूजा में कुछ वस्तुओं का विशेष महत्व रहता है जैसे कि तिल, चावल, जौ, कुशा इत्यादि। पूजा की विधि में एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि श्राद्ध में पितरों को अर्पित किया जाने वाले भोजन केवल पिंडी के रूप में समर्पित किया जाना चाहिए।

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